कुछ हॅंसकर फिर से वह बोली ‘सखि शकुन्तले! कृपानिधान
आर्य अतिथि या महाराज ने तुम्हें छुड़ाया, ऐसा मान,
अब जाओ’ इस पर शकुन्तला कही स्वगत मन का वश सोच
‘यदि अपने ऊपर वश हो तब’ बोली वचन त्याग संकोच
‘अयि प्रियंवदा! तेरे स्वर ये हृदय भेदते से, हो मौन
मुझे विसर्जन या अवरोधन करने वाली तुम हो कौन?’
उसके उठते हाव-भाव औ क्रिया-प्रतिक्रिया से उद्विग्न
नृप शकुन्तला को विलोककर लगे सोचने मन ही मन
‘हम हैं जैसे इसके प्रति, क्या है वैसी यह मेरे प्रति?
अथवा मेरी विनय प्रार्थना प्राप्त किया अवसर सम्प्रति
क्योंकि मेरे वचनों में यह वचन न यद्यपि मिला रही
किन्तु बोलने पर मेरे यह कर्णेन्द्रिय को लगा रही,
यद्यपि मेरे मुख के सम्मुख नहीं कर रही मुख स्थित
किन्तु अन्य विषयों पर प्रायः इसकी दृष्टि नहीं लक्षित’
थे जब ये सब इस प्रकार से बातों में संलग्न अभिन्न
तभी एक स्वर उठा अलक्षित करता मन को अतिशय खिन्न
‘हे तपस्वियों! करो सुरक्षा जीवों की आश्रम पर्यन्त,
निकट आ गये हैं आश्रम के आखेटक राजन दुष्यन्त,
अश्वों के खुर से उत्थापित धूल सदृश है जिसकी कान्ति
अस्ताचल प्रति उन्मुख रवि के अरुणिम किरणों की ही भॉंति
शलभ समूह सदृश वे रजकण गीले वल्कल वस्त्र निहित
आश्रम में स्थित वृक्षों के शाखा पर हो रहे पतित’
तपस्वियों का घ्यानाकर्षण करता हुआ सतत वह स्वर
आश्रम में भय की स्थिति पर हुआ सचेतक और प्रखर
‘रथ विलोक भयभीत हुआ गज, जिसने करके तीव्र प्रहार
तपोभूमि स्थित तरुवर का कर डाला समूल संहार
और तने में लगा हुआ है जिसका एक दॉंत, जिसके
जाल पाश बन गये पैर से खींची हुई लताओं के,
जिसने मृग के झुण्डों को है किया भिन्न भरकर आवेश
जो है मूर्त विघ्न सा तप में, आश्रम में कर रहा प्रवेश’
सभी ध्यान से यह स्वर सुनकर कुछ घबराई सी होकर
आत्म सुरक्षा हेतु वहॉं से हुई पलायन को तत्पर
स्वर अवगत नृप कहा स्वगत ‘धिक्’ जाने को थे सोच रहे
‘हमें खोजने वाले परिजन तपोभूमि को घेर रहे’
दोनों सखियॉं बोली नृप से सुन अरण्य गज का वृत्तान्त
‘हम व्याकुल हैं, कुटी गमन को आज्ञा दें, हे वीर प्रशान्त!’
नृप घबराये स्वर में बोले आप लोग तत्क्षण जायें
हम भी यत्न करेंगे जिससे आश्रम कष्ट नहीं पाये’
सभी उठे तब दोनों सखियॉं बोली नृप अभिमुख होकर
‘आर्य! अतिथि का आतिथेय भी हम सब ना कर पाने पर
फिर से दर्शन देने का यह करते हुए निवेदन नव
आर्य हो रहा है हम सब को अतिशय लज्जा का अनुभव’
नृप बोले ‘ऐसा मत कहिए, लज्जा शब्द यहॉं अनुचित,
यहॉं आपके दर्शन से ही मैं हूँ धन्य, पूर्ण उपकृत’
शकुन्तला कुछ चलकर बोली अनुसूया से शब्द विकल
‘अभिनव कुश अंकुर से मेरा चरण हो गया है घायल,
और इधर कुरबक शाखा से उलझा है मेरा वल्कल,
जब तक इसे छुड़ा लूँ तब तक करो प्रतीक्षा वहीं अचल’
इस आग्रह में ही विलम्ब कर शकुन्तला सौहार्द्रमयी
राजन का अवलोकन करती सखियों के संग चली गयी
उधर शकुन्तला के जाने पर नृप थे अति अधीर अनमन
किंकर्तव्यविमूढ़ हुए से करने लगे विविध चिन्तन
‘नगर गमन की मेरी इच्छा मन्द हो गई है यह अब
आश्रम निकट अनुचरों के सॅंग यहीं ठहरता हूँ मैं तब,
जो शकुन्तला के प्रति उठते मेरे मन में, वे व्यापार,
हूँ असमर्थ रोंक सकने में प्रेमपूर्ण सस्नेह विचार,
है शरीर अग्रसर हमारा किन्तु अपरिचित सा यह मन
वायुचलित चीनांशुक ध्वज सा पीछे को कर रहा गमन’