दोनों सखियॉं ‘हर्षित होकर यह बोली आदर सम्मत
‘फलदायी अविलम्ब मनोरथ! तेरा करते हैं स्वागत’
बैठी हुई वहीं ऋषितनया उठने का ज्यों किया प्रयास
नृप बोले ‘यह कष्ट मत करो, जैसा है रहने दो वास,
शंश्लिष्ट है पुष्प आस्तरण जिनमें लक्षित अति पीड़ित
आशु क्लान्त मृणाल खण्डों से भलीभॉंति है जो सुरभित-
तन्वंगी, ये अंग तुम्हारे इस प्रकार सन्तप्त अथाह
योग्य नहीं हैं कि मेरे प्रति शिष्टाचार करें निर्वाह’
‘इधर शिलातल करें अलंकृत’ अनुसूया के वचन विनीत,
बैठ गये नृप, शकुन्तला थी लज्जा की प्रतिमूर्ति प्रतीत
‘तुम दोनों का प्रेम परस्पर है प्रत्यक्ष ही परिलक्षित
कहने को सखि स्नेह कर रहा मुझको बार बार प्रेरित’
प्रियंवदा के इसी कथन पर नृप बोले ‘यह त्याज्य नहीं,
शुभे! अनुक्त अभीष्ट कथन भी देता है पछतावा ही’
प्रियंवदा ने किया कथन तब ‘राजाओं का है यह कर्म
राज्य निवासी प्रजाजनों का हो दुखहर्ता यथा स्वधर्म’
नृप उत्कंठित होकर बोले ‘इसके आगे और नहीं’
निरख अधिप की मनोदशा को प्रियंवदा यह बात कही
‘इसीलिए प्रिय सखी हमारी तुमको करके उद्देश्यित
भगवन मन्मथ के द्वारा है मदन दशा में आरोपित,
अतः आप अपने अनुग्रह से फलित करें उसका आशय
यह नितान्त ही उचित, आप दें उसके जीवन को आश्रय’
नृप बोले ‘भद्रे! इस तेरे प्रणय वचन का है सम्मान
मैं सर्वथा अनुगृहीत हूँ, यह मेरा भी निश्चय मान’

प्रियंवदा की ओर देखकर बोली शकुन्तला निष्प्रभ
‘अन्तःपुर के विरह-व्यथित को यहॉं रोंकने से क्या लाभ?’
नृप बोले ‘हे हृदयस्थिते! यदि ऐसे अनन्य आसक्त
मेरे उर को आप अन्यथा समढ रही हो, ज्यों आश्वस्त,
तो हे मदिर चक्षुओं वाली! तुझको करता हूँ अवगत
कामदेव के शर से आहत पुनः हो गया हूँ मैं हत’
अनुसूया बोली ‘वयस्य हे! ऐसी जनश्रुति है प्रचलित
कि नृप लोग अनेक प्रिया में रखने वाले हैं निज हित,
जिससे कि प्रिय सखी हमारी, आप उचित समझें जैसा,
शोच्या ना हो बन्धुजनों से यह कदापि, हो ही वैसा’
नृप बोले ‘भद्रे अनुसूये! और अधिक कहना ही क्या,
तुमने जो भी कहा सत्य है, तेरा आशय समझ गया,
बहुपत्नी के रहने पर भी मेरे कुल के दो गौरव
एक समुद्रवसना पृथ्वी यह अन्य तुम्हारी प्रिय सखि एव’
दोनों ही नृप से तब बोलीं ‘प्राप्त हुई हमको संतुष्टि’
पुनः प्रियंवदा अनुसूया से बोली कहीं डालकर दृष्टि
‘अनुसूये! होता प्रतीत है जैसे कि यह मृगशावक
अपनी मॉं को ढूँढ़ रहा है इधर दृष्टि देकर अपलक,
आ, हम दोनों इसे मिला दें’ कहकर उद्यत हुईं समान
उठकर दोनों तभी वहॉं से तत्क्षण कहीं किया प्रस्थान
‘मैं अशरण हूँ, तुम दोनों में कोई आओ इधर, हला!’
दोनों का प्रस्थान देखकर ऐसा बोली शकुन्तला,
दोनों बोलीं ‘किसका भय है?, है जो पृथ्वी का रक्षक
वह समीप तेरे स्थित है, हो क्यों तुम असहायजनक,

इस प्रकार कहकर वे दोनों उदासीन हो चली गयीं,
शकुन्तला के वचन पुनः थे ‘क्या तुम दोनों चली गयीं?’
नृप बोले ‘अधीर मत होना यह सेवक है स्थित पास,
तुम्हें न कोई कष्ट प्राप्त हो मेरा है यह पूर्ण प्रयास,
क्या, करभोरु! दूर करने को तेरा तन सन्ताप प्रसार
नलिनी पत्रों के पंखों से कर दूँ आर्द्रवात संचार,
अथवा, कमन समान तुम्हारे ताम्रवर्ण सा चरणों को
रखकर अपनी गोद दबा दूँ सुखमय यथा लगे तुमको’
लज्जित होकर शकुन्तला ने कहा देखती हुई अवनि
‘माननीय के प्रति अपने को नहीं करूँगी अपराधिनि’
हुई गमन को उद्यत वह तब बोले नृप रख प्रत्याशा
‘सुन्दरि! शेष दिवस है, अन्यपि तेरे तन की विकल दशा,
नलिनी के पत्रों से निर्मित है आवरण स्तनों का,
कुसुम शयन को अभी छोड़कर इस प्रकार है तन जिसका,
पीड़ा से कोमल अंगों से किस प्रकार इस आतप में
तुम जाओगी, हो समर्थ?’ नृप ऐसा रोंक लिए पथ में
शकुन्तला बोली ‘हे पौरव! अविनय छोड़ो, है विनती
मन्मथ पीड़ित भी, अपने पर मैं अधिकार नहीं रखती’
इस प्रकार उसके कहने पर करते हुए प्रदान अभय
नृप बोले ‘डरपोक! न करना गुरूजनों का किंचित् भय,
तुम्हें देखकर धर्मवेत्ता आदरणीय कण्व कुलपति
तुम में दोष नहीं पायेंगे इस प्रकार है मेरी मति,
यह भी कि गान्धर्व रीति से कई तापसी कन्याजन
हुई विवाहित, पितृजनों ने किया है उनका अभिनन्दन’

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel