पंचम सर्ग
वहॉं हस्तिनापुर में राजन बैठे थे जब आसन पर
सुना विदूषक कान लगाकर बोला फिर समीप आकर
‘अरे मित्र! संगीत कक्ष में सम्प्रति ध्यान दीजिए आप
श्रवण हो रहे कलापूर्ण इस मधुर गीत स्वर का आलाप,
सुनकर इस श्रवणीय गीत को यह हो रहा मुझे आभास
कि महोदया हंसपादिका हैं कर रही गान अभ्यास’
राजन बोले ‘शान्त रहो अब जिससे कि हो कर्ण ग्रहीत’
करने लगे श्रवण राजन वह गगन मार्ग से गाया गीत
‘अरे भ्रमर! तुम मृदु पराग के लोलुप अभिनव पुष्पों के
कोमल आम्र मंजरी का तुम उस प्रकार चुम्बन करके
मात्र कमल में रहने से ही अहो हो गये आनन्दित
आम्र मंजरी से ऐसे ही किस प्रकार से हो विस्मृत?’
सुनकर नृप दुष्यन्त ने कहा होने पर यह गीत व्यतीत
‘है अनुराग भाव को मन में प्रेरित करने वाला गीत’
प्रश्न विदूषक का राजन से सुनकर उसका ऐसा गीत
‘मित्र! गीत के अक्षरार्थ से आप हो गये क्या अवगत?’
सस्मित नृप बोले ‘इससे मैं एक बार था किया प्रणय
उसका लक्ष्य वसुमती से यह मुझ पर उपालम्भ कतिपय,
तो अब हंसपादिका से यह मेरे वचन कहो जाकर,
इस प्रकार से उपालम्भ यह दिया निपुणता से मुझ पर’
तब इस पर माढ़व्य ने कहा ‘जो दे रहे आज्ञा आप’
उठकर फिर बोला राजन से जैसे कि कर रहा विलाप
‘अरे मित्र! यह बोलो कि वह अन्य सेविका के द्वारा
मेरी शिखा पकड़वाकर यों यदि उसने मुझको मारा
तब जैसे अप्सरा प्रताड़ित वीतराग की कथा परोक्ष
उस क्षण उनसे किसी युक्ति से नहीं मिलेगा मुझको मोक्ष’
राजन बोले ‘शिष्टपूर्वक उसे बता दो यह जाकर’
तभी विदूषक ‘क्या उपाय है’ चला गया ऐसा कहकर
लगे सोचने राजन तब ‘क्यों सुनकर भावयुक्त यह गीत
प्रियजन विरह शून्य होकर भी मैं हूँ बलवत उत्कंठित,
अथवा सुन्दर वस्तु देखकर एवं मधुर शब्द सुनकर
सुखी व्यक्ति भी हो जाता है अतिशय उत्कंठित उस पर,
निश्चय भावरूप में स्थित जन्मान्तर के प्रणयों को
जाने बिना चित्त के द्वारा लाता स्मृति में उनको’
इस प्रकार ही आस पास था शान्त और निर्जन परिवेश
बैठे थे नृप यही सोचते भाव भरे व्याकुल आवेश
बोला स्वगत कक्ष तक आकर तभी कंचुकी वृद्धासन्न
‘ओह! अवश्य हो गया हूँ मैं इसी अवस्था को प्रतिपन्न,
महाराज के अन्तःपुर में मेरे द्वारा सदाचरण
कुशलपूर्वक पालन में जो वेत्रलता की गई ग्रहण
बहुत समय व्यतीत होने पर वृद्ध हुआ अब जब यह तन
चलते समय लुढ़कते गति में यह है मेरा अवलम्बन,
अह, विलम्ब करना अनुचित है धर्म कार्य में राजन को
फिर भी अभी धर्म आसन से उठे हुए महिपाधिप को
पुनः रोकने वाला ऐसा कण्व शिष्यों के आने का
मुझे नहीं उत्साह हो रहा समाचार बतलाने का,
प्रजाजनों के परिपालन में कभी नहीं कर्तव्य विराम,
लोकतन्त्र अधिकार प्राप्ति पर होता कभी कहॉं विश्राम?’
क्योंकि एक बार हय जोड़े हैं गतिमान सूर्य भगवन,
सतत प्रवाहित है निशि-वासर बिना लिए विश्राम पवन,
शेषनाग भी सदा भूमि का धारण किए हुए हैं भार
षष्ठ अंश लेकर राजन भी धर्म लिए हैं इसी प्रकार,
तो अब जाकर मै यह अपना पूरा करता हूँ कर्तव्य’
जाकर नृप का अवलोकन कर ‘देव यहॉ पर हैं दृष्टव्य,
जिस प्रकार रवि की किरणों से अतिसन्तप्त हुआ गजराज
दिन भर घुमा फिराकर जाता शीतल थल में संग समाज
वैसे ही प्रिय प्रजाजनों को किए तन्त्र से सुनियोजन
है कर रहे अशान्तमना नृप यह एकान्त प्रान्त सेवन’
तदनन्तर जाकर समीप ही धारण करके भाव विनय
सादर करता हुआ नमन वह बोला ‘महाराज की जय,
हिम उपत्यका वन के तपसी धारण किए तपोवन वेष
सहित स्त्रियों के आये हैं लेकर काश्यप का सन्देश,
देव करें जैसा निश्चय अब मेरी यह वाणी सुनकर’
तभी कंचुकी से राजा ने सादर प्रश्न किया इस पर
‘क्या ऋषि काश्यप द्वारा प्रेषित आये है सन्देशवाहक?’
उसने कहा ‘और क्या!’ इस पर बोले पुनः धर्मपालक
‘सोमरात आचार्य से कहो तत्क्षण यह मेरा आदेश
श्रुति विधि से सत्कार पूर्ण कर स्वयं करायें इन्हें प्रवेश,
इस स्थल पर स्थित रहकर सभी कार्य से हुआ विरत
तपस्वियों का दर्शन करने हूँ मैं यहॉं प्रतीक्षारत’
तभी कंचुकी सुन करके यह राजन का आदेश वचन
‘महाराज की जैसी आज्ञा’ ऐसा कहकर किया गमन
‘अग्निशरण का मार्ग बताओ, वेत्रवती! बोले उठकर
नृप से यह सुनकर प्रतिहारी बोली ‘आयें देव इधर’
राजन चारों ओर घूमकर दृश्य निरखते हुए चले
तदनन्तर अधिकार खेद को करते हुए व्यक्त बोले
’मनवांछित प्रिय वस्तु प्राप्तकर होते हैं सब लोग सुखी
यह नृप को चरितार्थ हुआ तो करता है अत्यन्त दुखी,
प्राप्त प्रतिष्ठा कर देती है उत्कंठा भर का अवसान
परिपालक दायित्व वृत्ति है राजाओं को कष्ट प्रधान,
उस छाते के सदृश राज्य है जिसका निज कर से धृत दण्ड
दूर नहीं करता श्रम उतना जितना श्रम को करे प्रचण्ड’
नृप से दूर द्वार पर आकर दो स्तुति पाठक तन्मय
एक साथ उच्चारण करके बोले ‘महाराज की जय’
तत्पश्चात् प्रथम वैतालिक देता हुआ उचित सम्मान
अपने इन शब्दों के द्वारा नृप का किया सुखद गुणगान
‘अपने सुख के लिए कभी भी रखते हो तुम शून्य प्रवृत्ति,
जन हित मे नित कष्ट उठाते, यही आपकी जीवन वृत्ति,
क्योंकि पादप तीव्र ताप को सिर पर करके स्वयं वहन
छाया से आश्रित लोगों का करता है सन्ताप शमन’
तदनन्तर द्वितीय वैतालिक इस प्रकार से हुआ मुखर
‘हे राजन! शासन के हित में दण्ड नीति को धारण कर