उनका वह वह सम्बन्धी है इस प्रकार कर दो घोषित’
प्रतिहारी बोली ‘ऐसी ही राजाज्ञा है सदा उचित’
तत्पश्चात शीघ्र प्रतिहारी चली गई आज्ञा लेकर
कुछ ही क्षण में पुनः लौटकर नृप से यह बोली सादर
‘देव! यथा उपयुक्त समय पर वर्षा का हो शुभागमन,
राजन की राजाज्ञा का भी किया गया है अभिनन्दन’
राजन गहरी गर्म स्वॉंस में व्यक्त किए क्षोभी आपत्ति
ऐसे ही सन्तति अभाव में निरालम्ब कुल की सम्पत्ति
मूलपुरुष के मर जाने पर हो जाती है पर-आक्रान्त
मेरे भी मरने पर होगा पौरवश्री का यही वृत्तान्त’
यह सुनकर प्रतिहारी बोली ‘देव! अमंगल हो प्रतिहत’
नृप ने कहा ‘उपस्थित श्री का अवमानी मैं हूॅं धिक्कृत’
अवलोकन कर सानुमती तब बोली ‘इसने निश्चय ही
मन में सखि को ही धारण कर निन्दा किया स्वयं का ही’
राजन पश्चातापपूर्वक कहने लगे व्यथा अपनी
‘बीज समय पर रोपित जिसमें, जो महान फल की जननी,
धरा सदृश, कुल की मर्यादा भार्या का करके अपमान
किया त्याग उसका मैं, उसमें करने पर भी पुत्राधान’
सानुमती राजन के दुःख का अवलोकन कर होकर खिन्न
बोली स्वगत ‘तुम्हारी संतति सम्प्रति होगी अपरिछिन्न’
कहने लगी चतुरिका हटकर स्थिति पर विचार अपना
‘अयि! उस सार्थवाह के दुःख से स्वामी का दुःख है दुगुना,
इन्हें धैर्य धारण करवाने मेघप्रतिछन्द महल जाओ
और आर्य माढ़व्य को अभी अपने सॅंग लेकर आओ’

प्रतिहारी यह सुनकर बोली ‘है तेरा यह उचित कथन’
और चतुरिका से कहकर यह शीघ्र वहॉं से किया गमन
नृप दुष्यन्त लगे तब कहने उस क्षण व्याकुल थे जब कि
‘अहो! हमारे पूज्य पितृगण हैं शंसयारूढ़, क्योंकि
दुःख है कि मेरे मरने पर मेरे कुल में श्रुति अनुसार
तर्पण आदि श्राद्ध कर्मों का कौन निभायेगा आचार,
मेरे पितर करेंगे तब, मुझ पुत्रहीन के किए प्रदान
निश्चय ही अपने ऑंसू में, मिश्रित तर्पण जल का पान’
मूर्छा प्राप्त हो गये राजन करके ऐसा उच्चारण
तभी चतुरिका भ्रमवश बोली ‘स्वामी! धैर्य करें धारण’
यह विलोककर सानुमती को हुआ कष्ट का बोध तभी
मन में बोली ‘हा धिक्! हा धिक्! दीपक के रहने पर भी
है व्यवधान दोष से ही यह अन्धकार दोष आपन्न
इसको मैं अपन प्रयास से कर देती हूँ अभी प्रसन्न,
या वैसा फिर, शकुन्तला को धैर्य बॅंधाने, जैसा कि
देव इन्द्र की मॉं के मुख से श्रवण किया था मैंने कि
यज्ञ भाग उत्सुक सुर अब कुछ युक्ति करेंगे क्रियान्वयन
जिससे पति अपनी पत्नी का शीघ्र करेगा अभिनन्दन,
अतः समय के प्रतिपालन का इच्छुक है मेरा मानस
तब तक इस वृत्तान्त से सखि को अभी बॅंधाती हूँ ढ़ॉढ़स’
उद्भ्रान्तक के अभिनय में तब सानुमती ने किया गमन
तभी सुनाई पड़ा अधिप को ‘अरे बचाओ’ का क्रन्दन
पुनः चेतना में आकर नृप कान लगाकर तोड़े मौन
‘अरे, आर्तस्वर है माढ़व्य का, बोलो अरे यहॉं है कौन?’

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