यहां एक और बात पर गौर किया। यहां ज्यादातर पुरुष भक्त मौजूद थे। महिला श्रद्धालु बहुत कम थीं। अगर थीं भी, तो बूढ़ी औरतें। मंदिर के एक पुरोहित से इसके बारे में पूछा तो पता चला कि श्री अयप्पन ब्रह्माचारी थे। इसलिए यहां वे छोटी बच्चियां आ सकती हैं, जो रजस्वला न हुई हों या बूढ़ी औरतें, जो इससे मुक्त हो चुकी हैं। जाति-धर्म का बंधन न मानने के बावजूद यह बंधन श्रद्धालुओं को मानना होता है। बाकी, धर्म निरपेक्षता की अद्भुत मिसाल यह देखने को मिलती है कि यहां से कुछ ही दूरी पर एरुमेलि नामक जगह पर श्री अयप्पन के सहयोगी माने जाने वाले मुसलिम धर्मानुयायी वावर का मकबरा भी है, जहां मत्था टेके बिना यहां की यात्रा पूरी नहीं मानी जाती।

दो मतों के समन्वय के अलावा धार्मिक सहिष्णुता का एक निराला ही रूप यहां देखने को मिला। धर्म इंसान को व्यापक नजरिया देता है, इसकी भी पुष्टि हुई। व्यापक इस लिहाज से कि अगर मन में सच्ची आस्था हो, तो भक्त और ईश्वर का भेद मिट जाता है।

अरवन पायसम

यह भी कहा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर नैवेद्य से भरी पोटली (इरामुडी) लेकर यहां पहुंचे, तो उसकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। माला धारण करने पर भक्त स्वामी कहलाने लगता है और तब ईश्वर और भक्त के बीच कोई भेद नहीं रहता। वैसे श्री धर्मषष्ठ मंदिर में लोग जत्थों में आते हैं। जो व्यक्ति जत्थे का नेतृत्व करता है, उसके हाथों में इरामुडी रहती है। पहले पैदल मीलों यात्रा करने वाले लोग अपने साथ खाने-पीने की वस्तुएं भी पोटलियों में लेकर चलते थे। तीर्थाटन का यही रिवाज था। अब ऐसा नहीं। पर भक्ति भाव वही है। उसी भक्ति भाव के साथ यहां करोड़ों की संख्या में लोग आते हैं। पिछले साल नवंबर से जनवरी के बीच यहां आने वाले लोगों की संख्या पांच करोड़ के करीब आंकी गई। यहां की व्यवस्था देखने वाले ट्रावनकोर देवासवम बोर्ड के मुताबिक, इस अवधि में तीर्थस्थल ने केरल की अर्थव्यवस्था को 10 हजार करोड़ रुपये प्रदान किए हैं।

बोर्ड श्रद्धालुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी लेता है। वह तीर्थयात्रियों का निःशुल्क दुर्घटना बीमा करता है। इस योजना के तहत चोट लगने या मृत्यु होने पर श्रद्धालु या उसके परिजनों को एक लाख रुपये तक दिए जाते हैं। इसके अलावा बोर्ड के या सरकारी कर्मचारियों के साथ अगर कोई हादसा होता है, तो उन्हें बोर्ड उन्हें डेढ़ लाख रुपये तक देता है।

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