ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल[1]-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
तेरी नाज़ुकी[2] से जाना कि बंधा था अ़हद[3] बोदा[4]
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार[5] होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश[6] को
ये ख़लिश[7] कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह[8]
कोई चारासाज़[9] होता, कोई ग़मगुसार[10] होता
रग-ए-संग[11] से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार[12] होता
ग़म अगर्चे जां-गुसिल[13] है, पर[14] कहां बचे कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़[15]-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना[16] है वो यकता[17]
जो दुई[18] की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़[19], ये तेरा बयान "ग़ालिब"!
तुझे हम वली[20] समझते, जो न बादाख़्वार[21] होता