हुई ताख़ीर[1] तो कुछ बाइसे[2]-ताख़ीर भी था
आप आते थे, मगर कोई इनाँगीर[3] भी था
तुम से बेजा[4] है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाइबा-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर[5] भी था
तू मुझे भूल गया हो, तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक[6] में तेरे कोई नख़चीर[7] भी था
क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हाँ कुछ इक रंज-ए-गिरांबारी-ए-ज़ंजीर[8] भी था
बिजली इक कौंध गई आँखों के आगे, तो क्या
बात करते, कि मैं लब-तश्ना-ए-तक़रीर[9] भी था
यूसुफ़ उस को कहूँ, और कुछ न कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लायक़-ए-तअ़ज़ीर [10] भी था
देखकर ग़ैर को हो क्यों न कलेजा ठंडा
नाला करता था वले, तालिब-ए-तासीर[11] भी था
पेशे में ऐब नहीं, रखिये न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़्ता-सरों[12] में वो जवाँ-मीर[13] भी था
हम थे मरने को खड़े, पास न आया न सही
आखिर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था
रेख़ते[14] के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था