न गुल-ए-नग़्मा हूँ, न परदा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़
तू, और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल[1]
मैं, और अंदेशा-हाए-दूरो-दराज़[2]
लाफ़-ए-तमकीं[3] फ़रेब-ए-सादा-दिली[4]
हम हैं, और राज़ हाए-सीना-ए-गुदाज़
हूँ गिरफ़्तारे उल्फ़त-ए-सैयाद[5]
वरना बाक़ी है ताक़ते परवाज़
वो भी दिन हो कि उस सितमगर से
नाज़ खींचूं बजाय हसरते-नाज़
नहीं दिल में तेरे वो क़तरा-ए-ख़ूं
जिस से मिज़गां[6] हुई न हो गुलबाज़[7]
मुझको पूछा तो कुछ ग़ज़ब न हुआ
मैं गरीब और तू ग़रीब-नवाज़
असदुल्लाह ख़ां तमाम हुआ
ऐ दरेग़ा[8] वह रिंद-ए-शाहिदबाज़[9]
शब्दार्थ: