हम से खुल जाओ बवक़्ते-मैपरस्ती एक दिन
वरना हम छेड़ेंगे रख कर उ़ज़र-ए-मस्ती[1] एक दिन
ग़र्रा-ए औज-ए बिना-ए आ़लम-ए इमकां न हो
इस बुलंदी के नसीबों में है पस्ती एक दिन
क़र्ज़ की पीते थे मै लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
नग़मा-हाए-ग़म को भी ऐ दिल ग़नीमत जानिये
बे-सदा हो जाएगा यह साज़-ए-हस्ती एक दिन
धौल-धप्पा उस सरापा-नाज़ का शेवा[2] नहीं
हम ही कर बैठे थे ग़ालिब पेश-दस्ती[3] एक दिन
शब्दार्थ: