हैरां हूँ, दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़दूर[1] हूँ तो साथ रखूँ नौहागर[2] को मैं
छोड़ा न रश्क[3] ने कि तेरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश, जानता न तेरी रहगुज़र को मैं
है क्या जो कस के बाँधिये मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं
लो, वो भी कहते हैं कि ये बेनंग-ओ-नाम है
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं
चलता हूँ थोड़ी दूर हर-इक तेज़-रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर[4] को मैं
ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश[5] दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदादगर[6] को मैं
फिर बेख़ुदी में भूल गया, राह-ए-कू-ए-यार
जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं
अपने पे कर रहा हूँ क़यास[7] अहल-ए-दहर[8] का
समझा हूँ दिल-पज़ीर[9] मताअ़-ए-हुनर[10] को मैं
"ग़ालिब" ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-ए-नाज़[11]
देखूँ अली बहादुर-ए-आली-गुहर[12] को मैं