फिर इस अंदाज़ से बहार आई
कि हुए मेहरो-मह[1] तमाशाई
देखो, ऐ साकिनान-ए-ख़ित्त-ए-ख़ाक[2]
इसको कहते हैं आलम-आराई[3]
कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर[4]
रूकशे-सतहे-चर्चे-मीनाई[5]
सब्ज़ा[6] को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब[7] पर काई
सब्ज़ा-ओ-गुल[8] के देखने के लिये
चश्मे-नर्गिस[9] को दी है बीनाई[10]
है हवा में शराब की तासीर[11]
बादा-नोशी[12] है बाद-पैमाई[13]
क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"
शाह-ए-दींदार[14] ने शिफ़ा[15] पाई
शब्दार्थ: