नुक्ताचीं[1] है, ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने
मैं बुलाता तो हूँ उस को, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाये कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने
खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे भूल न जाये
काश! यूँ भी हो कि बिन मेरे सताये न बने
ग़ैर फिरता है, लिए यों तेरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने
इस नज़ाकत[2] का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आयें, तो उन्हें हाथ लगाये न बने
कह सके कौन कि ये जल्वागरी[3] किसकी है
पर्दा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने
मौत की राह न देखूँ, कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने
बोझ वो सर पे गिरा है कि उठाये न उठे
काम वो आन पड़ा है कि बनाये न बने
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने
शब्दार्थ: