आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ-सा कहें जिसे
हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवैदा[1] कहें जिसे
फूँका है किसने गोश-ए-मुहब्बत[2] में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार[3] तमन्ना कहें जिसे
सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी[4] से डालिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक[5] कि सहरा[6] कहें जिसे
है चश्म-ए-तर[7] में हसरत-ए-दीदार से निहां[8]
शौक़-ए-अ़ना-गुसेख़्ता[9] दरिया कहें जिसे
दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल हाये-ऐश[10] को
सुबह-ए-बहार पम्बा-ए-मीना[11] कहें जिसे
"गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़[12] बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
शब्दार्थ: