भारतीय संस्कृति में व्रत-पूजा आदि निरे ऐकान्तिक-व्यक्तिगत कर्म नहीं रह जाते, किसी-न-किसी रूप में समाज से उनका जुड़ाव रहता है.पूरा आयोजन एक का न रह कर अनेक का, अनेक के लिए बन जाता है। महिलाओं के व्रत और पूजाएँ परिवार तथा समाज के विभिन्न वर्गों के योगदान के बिना संभव नहीं। मालिन, कुम्हारिन, नाइन, बारिन, भड़-भूजिन सबकी हिस्सेदारी -पूजा में और प्रसाद में।

इन व्रतों में पति-पुत्र के दीर्ध जीवन की कामना, और परिवार की सुख-समृद्धि की शुभेच्छा है वहीं उसका समापन, सबकी मंगल-कामना के साथ होता है, जैसी उनकी भयी तैसी सब की होय

सबका हित संपादित करने की भावना दीवाली की व्रत-कथा में बड़ी सुघरता से व्यक्त होती है-

सारा विधान तत्परता से पूरा हुआ देख, मुदित-मना लक्ष्मी का आगमन होता है। लेकिन व्रतार्थिनी द्वार रोक लेती है, 'रुको महरानी, पहले हमरी बात सुनि लेउ!'

लक्ष्मी जी विस्मित अब इसे क्या चाहिये, बोलीं, 'कहो!'

'अकेल कौन सुखी भवा? सो मैया, सब खुस रहें तभै तो हिया फरागत होय। तुम तो सब विधि समरथ हो, इत्ती और अरज है - तुम्हार चरन हमार घर में सकारथ तब होई जब बहू के मैके, धी के ससुरे, हमार गोत-कुटुम, आस-परोस, सबन पर किरपा होय, हमार कुल माँ सात पीढ़ी वास करो! अइस हुइ सकै तौन पधारो महारानी!'

लक्ष्मी चकित खड़ीं दुआरे, 'मेरे लिये इतना आयास किया अब, मैं आई तो कैसी अड़ी है, पर... इस सुलच्छिनी के गृह में नहीं तो कहाँ रहूँगी!'

उसकी सदाशयता पर रीझ कर सब शर्तें मानती हैं। यह तो हुई रूप-सौभाग्यदायिनी सप्त-गौर की पूजा हर व्रतमें विहित है

निर्धन या संपन्न होने से यहाँ अंतर नहीं पड़ता. वही मिट्टी के सात डले सप्त गौर का रूप धर लेते हैं, जो अइपन(हल्दी-चावल का घोल)से रचे चौक पर विराज रहे हैं, गौर को पूज कर,सात बार सुहाग ले कर व्रतार्थिनियाँ अँजलि में अक्षत-पुष्प धर उनके सम्मुख निवेदन करती हैं- नारी मन की चिर-संचित कामना, इस 'कहिनियाँ' में -

'आरी-बारी, सोने की दिवारी,
तहाँ बैठी बिटिया कान-कुँवारी।
का धावै, का मनावै,
सप्ता धावै, सप्ता मनावै।
सप्ता धाये का फल पाए ?
पलका पूत, सेज भतार,
अमिया तर मइको, महुआ तर ससुरो।
डुलियन आवैं पलकियन जायँ।
भइया सँग आवें, सइयाँ सँग जायँ।
चटका चौरो, माँग बिजौरो,
गौरा ईश्वर खेलैं सार।
बहुयें-बिटियाँ माँगें सुहाग-
सात देउर दौरानी,सात भैया भौजाई,
पाँव भर बिछिया, माँग भर सिंदुरा,
पलना पूत, सेज भतार,
कजरौटा सी बिटियां सिंधौरा सी बहुरियाँ,
फल से पूत, नरियर से दमाद.
गइयन की राँभन, घोड़न की हिनहिन।
देहरी भरी पनहियाँ, कोने भर लठियाँ,
अरगनी लँगुटियाँ
चेरी को चरकन,
बहू को ठनगन
बाँदी की बरबराट,काँसे की झरझराट,
टारो डेली,बाढ़ो बेली,
वासदेव की बड़ी महतारी।
जनम-जनम जनि करो अकेली।

मैं जानी बिटिया बारी-भोरी,
चन मँगिहै,चबेना माँगिहै,
बेटी माँगो कुल को राज।पायो भाग!
सत्ता दियो सुहाग!

और अपनी- अपनी अक्षत-पुष्पांजलियाँ समर्पित कर,'जैसी उनकी भयी तैसी सबकी होय !' से समापन करती हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया

भारत की नारी,तुम्हारे सारे व्रत-धर्म,इसी मूल भाव से संचालित हैं।

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