श्रीपराशरजी बोले - 
हे मैत्रेय ! पृथुके अन्तद्धीन और वादी नामक दो धर्मज्ञ पुत्र हुए, उनमेंसे अन्तर्द्धानसे उसकी पत्नी शिखण्डिनीने हविर्धानको उप्तन्न किया ॥१॥
हविर्धानसे अग्निकुलीना धिषणाने प्राचीनबर्हि, शुक्र, गय, कृष्ण, वृज और अजिन - ये छः पुत्र उप्तन्न किये ॥२॥
हे महाभाग ! हविर्धानसे उप्तन्न हुए भगवान् प्राचीनबर्हि एक महान् प्रजापति थे, जिन्होंने यज्ञके द्वारा अपनी प्रजाकी बहुत वृद्धि की ॥३॥
हे मुने ! उनके समयसें ( यज्ञानुष्ठानकी अधिकताके कारण ) प्राचीनाग्र कुश समस्त पृथिवीमें फैले हुए थे, इसलिये वे महाबली 'प्राचीनबर्हि' नामसे विख्यात हुए ॥४॥
हे महामते ! उन महीपतिने महान् तपस्याके अनन्तर समुद्रकी पुत्री सवर्णासे विवाह किया ॥५॥
उस समुद्रकन्या सवर्णाके प्राचीनबर्हिसे दस पुत्र हुए । वे प्रचेतानामक सभी पुत्र धनुर्विद्याके पारगामी थे ॥६॥
उन्होंने समुद्रके जलमें रहकर दस हजार वर्षतक समान धर्मका आचरण करते हुए घोर तपस्या की ॥७॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - हे महामुने ! उन महात्मा प्रचेता ओंने जिस लिये समुद्रके जलमें तपस्या की थी सो आप कहिये ॥८॥
श्रीपराशरजी कहने लगे - 
हे मैत्रेय ! एक बार प्रजापतिकी प्रेरणासे प्रचेताओंके महात्मा पिता प्राचीनबर्हिने उसने अति सम्मानपूर्वक सन्तानोप्तत्तिके लिये इस प्रकार कहा ॥९॥
प्राचीनबर्हि बोले - हे पुत्रो ! देवाधिदेव ब्रह्माजीने मुझे आज्ञा दी है कि 'तुम प्रजाकी वृद्धि करो' और मैंने भी उनसे 'बहुत अच्छा' कह दिया है ॥१०॥
अतः हे पुत्रगण ! तुम भी मेरी प्रसन्नताके लिये सावधानतापूर्वक प्रजाकी वृद्धि करो, क्योंकि प्रजापतिकी आज्ञा तुमको भी सर्वथा माननीय है ॥११॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मुने ! उन राजकुमारोंने पिताके ये वचन सुनकर उनसे ' जो आज्ञा ' ऐसा कहकर फिर पूछा ॥१२॥
प्रचेता बोले - 
हे तात ! जिस कर्मसे हम प्रजावृद्धिमें समर्थ हो सकें उसकी आप हमसे भली प्रकार व्याख्या कीजिये ॥१३॥
पिताने कहा - 
वरदायक भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे ही मनुष्यको निःसन्देह इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है और किसी उपायसे नहीं । इसके सिवा और मैं तुमसे क्या कहूँ ॥१४॥
इसलियें यदि तुम सफलता चाहते हो तो प्रजा वृद्धिके लिये सर्वभूतोंके स्वामी श्रीहरि गोविन्दको उपासना करो ॥१५॥
धर्म, अर्थ, काम या मोक्षकी इच्छावालोंको सदा अनादि पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुकी ही आराधना करनी चाहिये ॥१६॥
कल्पके आरम्भमें जिनकी उपासना करके प्रजापतिने संसारकी रचना की है, तुम उन अच्युतकी ही आराधना करो । इससे तुम्हारी सन्तानकी वृद्धी होगी ॥१७॥
श्रीपराशरजी बोले - 
पिताकी ऐसी आज्ञा होनेपर प्रचेता नामक दसों पुत्रोंने समुद्रके जलमें डूबे रहकर सावधानतापूर्वक तप करना आरम्भ कर दिया ॥१८॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सर्वलोकश्रय जगत्पति श्रीनारायणमें चित्त लगाये हुए उन्होंने दस हजार वर्षतक वहाँ ( जलमें ही ) स्थित रहकर देवाधिदेव श्रीहरिकी एकाग्र-चित्तसे स्तुति की, जो अपनी स्तुति की जानेपर स्तुति करनेवालोंकी सभी कामनाएँ सफल कर देते हैं ॥१९-२०॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - 
हे मुनिश्रेष्ठ ! समुद्रके जलमें स्थित रहकर प्रचेताओंने भगवान् विष्णुकी जो अति पवित्र स्तुति की थी वह कृपया मुझसे कहिये ॥२१॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! पूर्वकालमें समुद्रमें स्थित रहकर प्रचेताओंने तन्मय-भावसे श्रीगोविन्दकी जो स्तुति की, वह सुनो ॥२२॥
प्रचेताओंने कहा - 
जिनमें सम्पूर्ण वाक्योंकी नित्य-प्रतिष्ठा हैं ( अर्थात् जो सम्पूर्ण वाक्योंके एकमात्र प्रतिपात्र हैं ) तथा जो जगत्‌की उप्तत्ति और प्रलयके कारण हैं उन निखिल- जगन्नायक परमप्रभुको हम नमस्कार करते हैं ॥२३॥
जो आद्य ज्योतिस्स्वरूप, अनुपम, अणु, अनन्त, अपार और समस्त चराचरके कारण हैं, तथा जिन रूपहीन परमेश्वरके दिन, रात्रि और सन्ध्या ही प्रथम रूप हैं, उन कालस्वरूप भगवान्‌को नमस्कार है ॥२४-२५॥
समस्त प्राणियोंके जीवनरूप जिनके अमृतमय स्वरूपको देव और पितृगण नित्यप्रति भोगते हैं - उन सोमस्वरूप प्रभुको नमस्कार है ॥२६॥
जो तीक्ष्णस्वरूप अपने तेजसे आकाशमंडलको प्रकाशित करते हुए अन्धकारको भक्षण कर जाते हैं तथा जो घाम, शीत और जलके उद्गमस्थान हैं उन सूर्यस्वरूप ( नारायण ) को नमस्कार है ॥२७॥
जो कठिनतायुक्त होकर इस सम्पूर्ण संसारको धारण करते हैं और शब्द आदि पाँचों विषयोंके आधार तथा व्यापक हैं, उन भूमिरूप भगवान्‌को नमस्कार है ॥२८॥
जो संसारका योनिरूप है और समस्त देहधारियोंका बीज है, भगवान् हरिके उस जलस्वरूपको हम नमस्कार करते है ॥२९॥
जो समस्त देवताओंका हव्यभुक् और पितृगणका कव्यभुक् मुख है, उस अग्निस्वरूप विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है ॥३०॥
जो प्राण, अपान आदि पाँच प्रकारसे देहमें स्थित होकर दिन-रात चेष्टा करता रहता है तथा जिसकी योनि आकाश है, उस वायुरूप भगवान्‌को नमस्कार है॥३१॥
जो समस्त भूतोंको अवकाश देता है उस अनन्तमूर्ति और परम शुद्ध आकाशस्वरूप प्रभुको नमस्कार है ॥३२॥
समस्त इन्द्रिय-सृष्टिके जो उत्तम स्थान हैं उन शब्द-स्पर्शादिरूप विधाता श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है ॥३३॥
जो क्षर और अक्षर इन्द्रियरूपसे नित्य विषयोंको ग्रहण करते हैं उन ज्ञानमूल हरिको नमस्कार है ॥३४॥
इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये विषयोंको जो आत्माके सम्मुख उपस्थित करता है उस अन्तः करण-रूप विश्वात्माको नमस्कार है ॥३५॥
जिस अनन्तमें सकल विश्व स्थित है, जिससे वह उप्तन्न हुआ है और जो उसके लयका भी स्थान है, उस प्रकृतिस्वरूप परमात्माको नमस्कार है ॥३६॥
जो शुद्ध और निर्गुण होकर भी भ्रमवश गुणयुक्त-से दिखायी देते हैं उना आत्मस्वरूप पुरुषोत्तमदेवको हम नमस्कार करते हैं ॥३७॥
जो अविकारी, अजन्मा, शुद्ध, निर्गुण, निर्मल और श्रीविष्णुका परमपद है उस ब्रह्मस्वरूपको हम नमस्कार करते है ॥३८॥
जो न लम्बा है, न पतला है, न मोटा है, न छोटा है और न काला है, न लाल है; जो स्त्रेह ( द्रव ) , कान्ति तथा शरीरसे रहित एवं अनासक्त और अशरीरी ( जीवसे भिन्न ) है ॥३९॥
जो अवकाश स्पर्श, गन्ध और रससे रहित तथा आँख-कान-विहीन, अचल एवं जिह्वा, हाथ और मनसे रहित हैं ॥४०॥
जो नाम, गोत्र, सुख और तेजसे शून्य तथा कारणहीन है; जिसमें भय, भ्रान्ति, निद्रा, जरा और मरण - इन ( अवस्थाओं ) का अभाव है ॥४१॥
जो अरज ( रजोगुणरहित ), अशब्द, अमृत, अप्लुत ( गतिशून्य ) और असंवृत ( अनाच्छादित ) है एवं जिसमें पूर्वापर व्यवहारकी गति नहीं है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥४२॥
जिसका ईशन ( शासन ) ही परमगुण है, जो सर्वरूप और अनाधार है तथा जिह्ला और दृष्टिका अविषय है, भगवान् विष्णुके उस परमपदको हम नमस्कार करते हैं ॥४३॥
श्रीपराशरजी बोले - 
इस प्रकार श्रीविष्णुभगवान्‌में समाधिस्थ होकर प्रचेताओंने महासागरमें रहकर उनकी स्तुति करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या की ॥४४॥
तब भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर उन्हें खिले हुए नील कमलकी सी आभायुक्त दिव्य छविसे जलके भीतर ही दर्शन दिया ॥४५॥
प्रचेताओंने पक्षिराजे गरुड़पर चढ़े हुए श्रीहरिको देखकर उन्हें भक्तिभावके भारसे झुके हुए मस्तकोंद्वारा प्रणाम किया ॥४६॥
तब भगवान्‌ने उससे कहा - 
" मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हें वर देनके लिये आया हूँ, तुम अपना अभीष्ट वर माँगो" ॥४७॥
तब प्रचेताओंने वरदायक श्रीहरिको प्रणाम कर, जिस प्रकार उनके पिताने उन्हें प्रजा-वृद्धिके लिये आज्ञा दी थी वह सब उनसे निवेदन की ॥४८॥ तदनन्तर, भगवान् उन्हें अभीष्ट वर देकर अन्तर्धान हो गये और वे जलसे बाहर निकल आये ॥४९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥
 

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