श्रीपराशरजी बोले - 
प्रचेताओंके तपस्यामें लगे रहनेसे ( कृषि आदिद्वारा ) किसी प्रकारकी रक्षा न होनेके कारण पृथिवीको वृक्षोंने ढँक लिया और प्रजा बहुत कुछ नष्ट हो गयी ॥१॥
आकाश वृक्षोंसे भर गया था । इसलिये दस हजार वर्षतक न तो वायु ही चला और न प्रजा ही किसी प्रकारकी चेष्टा कर सकी ॥२॥
जलसे निकलनेपर उन वृक्षोंको देखकर प्रचेतागण अति क्रोधित हुए और उन्होंने रोषपूर्वक अपने मुखसे वायु और अग्निको छोड़ा ॥३॥
वायुने वृक्षोंको उखाड़ - उखाड़कर सुखा दिया और प्रचण्ड अग्निने उन्हें जला डाला । इस प्रकार उस समय वहाँ वृक्षोंका नाश होने लगा ॥४॥
तब वह भयंकर वृक्ष प्रलय देखकर थोड़े से वृक्षोंके रह जानेपर उनके राजा सोमने प्रजापति प्रचेताओंके पास जाकर कहा - ॥५॥
" हे नृपतिगण ! आप क्रोध शान्त कीजिये और मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनिये । मैं वृक्षोंके साथ आपलोगोंकी सन्धि करा दूँगा ॥६॥
वृक्षोंसे उप्तन्न हुई इस सुन्दर वर्णवाली रत्नस्वरूपा कन्याका मैंने पहलेसे ही भविष्यको जानकर अपनी ( अमृतमयी ) किरणोंसे पालन-पोषण किया है ॥७॥
वृक्षोंकी यह कन्यां मारिषा नामसे प्रसिद्ध है, यह महाभागा इसलिये ही उप्तन्न की गयी है कि निश्चय ही तुम्हारे वंशको बढ़ानेवाले तुम्हारी भार्या हो ॥८॥
मेरे और तुम्हारे आधे-आधे तेजसे इसके परम विद्वान् दक्ष नामक प्रजापति उप्तन्न होगा ॥९॥
वह तुम्हारे तेजके सहित मेरे अंशसे युक्त होकर अपने तेजके कारण अग्निके समान होगा और प्रजाकी खुब बुद्धि करेगा ॥१०॥
पूर्वकालमें वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ एक कण्डु नामक मुनीश्वर थे । उन्होंने गोमती नदीके परम रमणीक तटपर घोर तप किया ॥११॥
तब इंन्द्रने उन्हें तपोभ्रष्ट करनेके लिये प्रम्लोचा नामकी उत्तम अप्सराको नियुक्त किया । उस मत्र्चहासिनीने उन ऋषिश्रेष्ठको विचलित कर दिया ॥१२॥
उसके द्वारा क्षुब्ध होकर वे सौसे भी अधिक वर्षतक विषयासक्त-चित्तिसे मन्दराचलकी कन्दारामें रहे ॥१३॥
तब, हे महाभाग ! एक दिन उस अप्सराने कण्डु ऋषिसे कहा - "हे ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्गलोकको जाना चाहती हूँ, आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दिजिये" ॥१४॥
उसके ऐसा कहनेपर उसमें आसक्त-चित्त हुए मुनिने कहा - "भद्रे ! अभी कुछ दिन और रहो" ॥१५॥
उनक ऐसा कहनेपर उस सुन्दरीने महात्मा कण्डुके साथ अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना प्रकारके भोग भोग ॥१६॥
तब भी, उसके यह पूछनेपर कि 'भगवान् ! मुझे स्वर्गलोकको जानेकी आज्ञा दीजिये' ऋषिने यही कहा कि 'अभि और ठहरो' ॥१७॥
तदनन्तर सौ वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर उस सुमुखीने प्रणययुक्त मुक्सकानसे सुशोभित वचनोंमें फिर कहा - "ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्गको जाती हूँ " ॥१८॥
यह सुनकर मुनिने उस विशालाक्षाको आलिंगनकर कहा -'अयि सुभ्रु ! अब तो तू बहुत दिनोंके लिये चली जायगी इसलिये क्षणभर तो और ठहर " ॥१९॥
तब वह सुश्रोणी ( सुन्दर कमरवाली ) उस ऋषिके साथ क्रीड़ा करती हुई दो सौ वर्षसे कुछ कम और रही ॥२०॥
हे महाभाग ! इस प्रकार जब-जब वह सुन्दरी देवलोकको जानेके लिये कहती तभी-तभी कण्डु ऋषि उससे यही कहते कि 'अभी ठहर जा' ॥२१॥
मुनिके इस प्रकार कहनेपर, प्रणयभंगकी पीड़ाको जाननेवाली उसे दक्षिणाने*अपने दक्षिण्यवश तथा मुनिके शापसे भयभीत होकर उन्हें न छोड़ा ॥२२॥
तथा उन महर्षि महोदयका भी, कामासक्तचित्तसे उसके साथ अहर्निश रमण करते-करते, उसमें नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया ॥२३॥
एक दिन वे मुनिवर बड़ी शीघ्रतासे अपनी कुटीसे निकले ! उनके निकलते समय वह सुन्दरी बोली - "आप कहाँ जाते हैं" ॥२४॥
उसके इस प्रकार पूछनेपर मुनिने कहा - "हे शुभे ! दिन अस्त हो चुका है, इसलिये मैं सन्ध्योपासना करूँगा; नहीं तो नित्य क्रिया नष्ट हो जायगी" ॥२५॥
तब उस सुन्दर दाँतोवालीने उन मुनीश्वरसे हँसकर कहा - "हे सर्वधर्मज्ञ ! क्या आज ही आपका दिन अस्त हुआ है ? ॥२६॥
हे विप्र ! अनेको वर्षोकि पश्चात आज आपका दिन अस्त हुआ है; इससे कहिये, किसको आश्चर्य न होगा ? " ॥२७॥
मुनि बोले - भद्रे ! नदीके इस सुन्दर तटपर तुम आज सबेरे ही तो आयी हो । ( मुझे भली प्रकार स्मरण है ) मैंने आज ही तुमको अपने आश्रममें प्रवेश करते देखा था ॥२८॥
अब दिनके समाप्त होनेपर यह सन्ध्याकाल हुआ है । फिर, सच तो कहो, ऐसा उपहास क्यों करती हो ? ॥२९॥
प्रम्लेचा बोली - ब्रह्मन ! आपका यह कथन कि 'तुम सबेरे ही आयी हो' ठीक ही है, इसमें झूठ नहीं; परन्तु उस समयको तो आज सैकड़ो वर्ष बीत चुके ॥३०॥
सोमने कहा - तब उन विप्रवरने उस विशालाक्षीसे कुछ घबड़ाकर पूछा - "अरी भीरु ! ठीक - ठीक बता, तेरे साथ रमण करते मुझे कितना समय बीत गया ?" ॥३१॥
प्रम्लोचाने कहा - 
अबतक नौ सौ सात वर्ष, छः महीने तथा तीन दिन और भी बीत चुके हैं ॥३२॥
ऋषि बोले - अयि भीरु ! यह तू ठिक कहती है, या हे शुभे ! मेरी हँसी करती है ? मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि मैं इस स्थानपर तेरे साथ केवल एक ही दिन रहा हूँ ॥३३॥
प्रम्लोचा बोली - हे ब्रह्मन ! आपके निकट मैं झूठ कैसे बोल सकती हुँ ? और फिर विशेषतया उस समय जब कि आज आप अपने धर्म - मार्गका अनुसरण करनेमें तप्तर होकर मुझसे पूछ रहे हैं ॥३४॥
सोमने कहा - 
हे राजकुमारो ! उसके ये सत्य वचन सुनकर मुनिने ' मुझे धिक्कार है ! मुझे धिक्कार हैं ! ' ऐसा कहकर स्वयं ही अपनेको बहुत कुछ भलाबुरा कहा ॥३५॥
मुनि बोले - 
ओह ! मेरा तप नष्ट हो गया, जो ब्रह्मवेत्ताओंका धन था वह लुट गया और विवेकबुद्धि मारी गयी ! अहो ! स्त्रीको तो किसीने मोह उपजानेके लिये ही रचा है ! ॥३६॥
'मुझे अपने मनको जीतकर छहों ऊर्मियो*से अतीत परब्रह्मको जानना चाहिये' - जिसने मेरी इस प्रकारकी बुद्धिको नष्ट कर दिया, उस कामरूपी महाग्रहको धिक्कार है ॥३७॥
नरकग्रामके मार्गरूप इस स्त्रीके संगसे वेदवेद्य भगवान्‌की प्राप्तिके कारणरूप मेरे समस्त व्रत नष्ट हो गये ॥३८॥
इस प्रकार उन धर्मज्ञ मुनिवरने अपने आप ही अपनी निन्दा करते हुए वहाँ बैठी हुई उस अप्सरासे कहा - ॥३९॥
"अरी पापिनि ! अब तेरी जहाँ इच्छा हो चली जा, तुने अपनी भावभंगीसे मुझे मोहित करके इन्द्रका जो कार्य था वह पूरा कर लिया ॥४०॥
मैं अपने क्रोधने प्रज्वलित हुए अग्निद्वारा तुझे भस्म नहीं करता हूँ, क्योकीं सज्जनोंकी मित्रता सात पग साथ रहनेसे हो जाती है और मैं तो ( इतने दिन ) तेरे साथ निवास कर चुका हूँ ॥४१॥
अथवा इसमें तेरा दोष भी क्या है, जो मैं तुझपर क्रोध करूँ ? दोष तो सारा मेरा ही है, क्योंकी मैं बड़ा ही अजितेन्दिय हूँ ॥४२॥ 
तू महामोहकी पिटारी और अत्यन्त निन्दनीया है । हाय ! तुने इन्द्रके स्वार्थके लिये मेरी तपस्या नष्ट कर दी !! तुझे धिक्कार है !!! ॥४३॥
सोमने कहा - वे ब्रह्मर्षि उस सुन्दरीसे जबतक ऐसा कहते रहे तबतक वह ( भयके कारण ) पसीनेमें सराबोर होकर अत्यन्त काँपती रही ॥४४॥
इस प्रकर जिसका समस्त शरीर पसीनेमें डूबा हुआ था और जो भयसे थर-थर काँप रही थी उस प्रम्लोचासे मुनिश्रेष्ठ कण्डुने क्रोधपूर्वक कहा - 'अरि ! तू चली जा ! चली जा !! ॥४५॥
तब बारम्बार फटकारे जानेपर वह उस आश्रमसे निकली और आकाश - मार्गसे जाते हुए उसने अपना पसीना वृक्षके पत्तोंसे पोंछा ॥४६॥
वह बाला वृक्षोंके नवीन लाल-लाल पत्तोंसे अपने पसीनेसे तर शरीरको पोंछती हुई एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर चलती गयी ॥४७॥
उस समय ऋषिने उसके शरीरमें जो गर्भ स्थापित किया था वह भी रोमात्र्चसे निकले हुए पसीनेके रूपमें उसके शरीरसे बाहर निकल आया ॥४८॥
उस गर्भको वृक्षोंने ग्रहण कर लिया, उसे वायुने एकत्रित कर दिया और मैं अपनी किरणोंसे उसे पोषित करने लगा ! इससे वह धीरे धीरे बढ़ गया ॥४९॥
वृक्षाग्रसे उप्तन्न हुई वह मारिष नामकी सुमुखी कन्या तुम्हें वृक्षगण समर्पण करेंगे । अतः अब यह क्रोध शान्त करो ॥५०॥
इस प्रकार वृक्षोंसे उप्तन्न हुई वह कन्या प्रम्लोचाकी पुत्री है तथा कण्डु मुनिकी, मेरी और वायुकी भी सन्तान है ॥५१॥
श्रीपराशरजी बोले - है मैत्रेय ! ( तब यह सोचकर कि प्रचेतागण योगभ्रष्टकी कन्या होनेसे मारिषाको अग्राहा न समझे सोमदेवने कहा - ) साधुश्रेष्ठ भगवान् कण्डु भी तपके क्षीण हो जानेसे पुरुषोत्तमक्षेत्र नामक भगवान विष्णुकी निवास-भूमिको गये और हे राजपुत्रो ! वहाँ वे महायोगी एकनिष्ठा होकर एकाग्र चित्तसे ब्रह्मपारमन्त्रका जप करते हुए ऊर्ध्वबाहु रहकर श्रीविष्णुभगवान्‌की आराधना करने लगे ॥५२-५३॥
प्रचेतागण बोले - 
हम कण्डु मुनिक ब्रह्मपार नामक परमस्तोत्र सुनना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए उन्होंने श्रीकेशवकी आराधना की थी ॥५४॥
सोमने कहा - 
( हे राजकुमारो ! वह मन्त्र इस प्रकर है - ) 'श्रीविष्णुभगवान् संसार - मार्गकी अन्तिम अवधि है, उनका पार पाना कठिन है, वे पर ( आकाशादि ) से भी पर अर्थात अनन्त हैं, अतः सत्यस्वरूप हैं । तपोनिष्ठा महात्माओंको ही वे प्राप्त ह सकते हैं, क्योंकी वे पर ( अनात्म - प्रपत्र्च ) से परे है तथा पर ( इन्द्रियों ) के अगोचर परमात्मा है और ( भक्तोंके ) पालक एवं ( उनके अभीष्टको ) पूर्ण करनेवाले हैं ॥५५॥
वे कारण ( पत्र्चभूत ) के कारण ( पत्र्चतन्मात्रा ) के हेतु ( तामस - अहंकार ) और उसके भी हेतु ( महत्तत्त्व ) के हेतु ( प्रधान ) के भी परम हेतु है और इस प्रकर समस्त कर्म और कर्ता आदिके सहित कार्यरूपसे स्थित सकल और कर्त्ता आदिके सहित कार्यरूपसे स्थित सकल प्रपत्र्चका पालन करते हैं ॥५६॥
ब्रह्म ही प्रभु है, ब्रह्म ही सर्वजीवरूप है और ब्रह्म ही सकल प्रजाका पति ( रक्षक ) तथा अविनाशे हैं । वह ब्रह्म अव्यय, नित्य और अजन्मा है तथा वही क्षय आदि समस्त विकारोंसे शून्य विष्णु है ॥५७॥
क्योंकी वह अक्षर, अज और नित्य ब्रह्म ही पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु हैं इसलिये ( उनका नित्य अनुरक्त भक्त होनेके कारण ) मेरे राग आदि दोष शान्त हो' ॥५८॥
इस ब्रह्मपार नामक परम स्तोत्रका जप करते हुए श्रीकेशवकी आराधना करनेसे उस मुनीश्वरने नित्यप्रति परमसिद्धि प्राप्त की ॥५९॥
( जो पुरुष इस स्तवको नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोषोंसे मुक्त होकर अपना मनोवात्र्छित फल प्राप्त करता है । ) अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि यह मारिषा पुर्वजन्ममें कौन थी । यह बता देनेसे तुम्हारे कार्यका गौरव पूर्वजन्ममें कौन थे । यह बता देनेसें तुम्हारे कार्यका गौरव सफल होगा । ( अर्थात तुम प्रजा - वृद्धिरूप फल प्राप्त कर सकोगे ) ॥६०॥
यह साध्वी अपने पूर्व जन्ममें एक महारानी थी । पुत्रहीन-अवस्थामें ही पतिके मर जानेपर इस महाभागोने अपने भक्तिभावसे विष्णुभगवान्‌को सन्तुष्ट किया ॥६१॥
इसके आराधनासे प्रसन्न हो विष्णुभगवानुने प्रकट होकर कहा - ' हे शुभे ! वर माँग ! " तब इसने अपनी मनोभिलाषा इस प्रकार कह सुनायी ॥६२॥
"भगवन ! बाल विधवा होनेके कारण मेरा जन्म व्यर्थ ही हुआ । हे जगत्पते ! मैं ऐसी अभागिनी हूँ कि फलहीन ( पुत्रहीन ) ही उप्तन्न हुई ॥६३॥
अतः आपकी कृपासे जन्म-जन्ममें मेरे बड़े प्रशंसनीय पति हों और प्रजापति ( ब्रह्माजी ) के समान पुत्र हो ॥६४॥
और हे अधोक्षज ! आपके प्रसादसे मैं भी कुल, शील, अवस्था, सत्य, दाक्षिण्य ( कार्य कुशलता ), शीघ्रकारिता, अविसंवादिता ( उलटा न कहना ), सत्त्व, वृद्धसेवा और कृतज्ञता आदि गुणोंसे तथा सुन्दर रूपसम्पत्तिसे सम्पन्न और सबको प्रिय लगनेवाली अयोनिजा ( माताके गर्भसे जन्म लिये बिना ) ही उप्तन्न होऊँ' ॥६५-६६॥
सोम बोले - उसके ऐसा कहनेपर वरदायक परमेश्वर देवाधिदेव श्रीहृषीकेशने प्रणामके लिये झुकी हूई उस बालाको उठाकर कहा ॥६७॥
भगवान् बोले - तेरे एक ही जन्ममें बड़े पराक्रमी और विख्यात कर्मवीर दस पति होंगे और हे शोभने ! उसी समय तुझे प्रजापतिके समान एक महावीर्यवान् एवं अत्यन्त बल - विक्रमयुक्त पुत्र भी प्राप्त होगा ॥६८-६९॥
वह इस संसारमें कितने ही वंशोकों चलानेवाला होगा और उसकी सन्तान सम्पूर्ण त्रिलोकीमें फैल जायगी ॥७०॥
तथा तू भी मेरी कृपासे उदाररूपगुणसम्पन्ना, सुशीला और मनुष्योंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली अयोनिजा ही उप्तन्न होगी ॥७१॥
हे राजपुत्रो ! उस विशालाक्षीसे ऐसा कह भगवान अन्तर्धान हो गये और वही यह मारिषाके रूपसे उप्तन्न हूई तुम्हारी पत्नी है ॥७२॥
श्रीपराशरजी बोले - 
तब सोमदेवके कहनेसे प्रचेताओंने अपना क्रोध शान्त किया और उस मारिषाको वृक्षोंसे पत्नीरूपसे ग्रहण किया ॥७३॥
उन दसों प्रचेताओंसे मारिषाके महाभाग दक्ष प्रजापतिका जन्म हुआ, जो पहले ब्रह्माजीसे उप्तन्न हुए थे ॥७४॥
हे महामते ! उन महाभाग दक्षने, ब्रह्माजीकी आज्ञा पालते हुए सर्ग - रचनाके लिये उद्यत होकर उनकी अपनी सृष्टि बढ़ाने और सन्तान उप्तन्न करनेके लिये नीचे - ऊँच तथा द्विपदचतुष्पद आदि नाना प्रकारके जीवोंको पुत्ररुपसे उप्तन्न किया ॥७५-७६॥
प्रजापति दक्षने पहले मनसे ही सृष्टि करके फिर स्त्रियोंकी उप्तत्ति की । उनमेंसे दस धर्मको और तेरह कश्यपको दीं तथा काल- परिवर्तनमें नियुक्त ( अश्विनी आदि ) सत्ताईस चन्द्रमाको विवाह दीं ॥७७॥
उन्हीसें देवता, दैत्य, नाग, गौ, पक्षी, गन्धर्व, अप्सरा और दानव आदि उप्तन्न हुए ॥७८॥
हे मैत्रेय ! दक्षय समयसे ही प्रजाका मैथून ( स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध ) द्वारा उप्तन्न होना आरम्भ हुआ है । उससे पहले तो अत्यन्त तपस्वी प्राचीन सिद्ध पुरुषोंके तपोबलसे उनके संकल्प, दर्शन अथवा स्पर्शमात्रसे ही प्रजा उप्तन्न होती थी ॥७९॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - हे महामुने ! मैंने तो सुना था कि दक्षका जन्म ब्रह्माजीके दायें अँगूठेसे हुआ था, फिर वे प्रचेताओंके पुत्र किस प्रकार हुए ? ॥८०॥
हे ब्रह्मन ! मेरे हृदयमें यह बड़ा सन्देह है कि सोमदेवके दौहित्र ( धेवते ) होकर भी फिर वे उनके श्व्शुर हुए ! ॥८१॥
श्रीपराशरजी बोले - 
हे मैत्रेय ! प्राणियोंके उप्तत्ति और नाश ( प्रवाहरूपसे ) निरन्तर हुआ करते हैं । इस विषयमें ऋषियों तथा अन्य दिव्यदृष्टि-पुरुषोंको कोई मोह नहीं होता ॥८२॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! ये दक्षादि युग - युगमें होते हैं और फिर लीन हो जाते हैं; इसमें विद्वानको किसी प्रकरका सन्देह नहीं होता ॥८३॥
हे द्विजोत्तम ! इनमें पहले किसी प्रकारकी ज्येष्ठता अथवा कनिष्ठता भी नहीं थी । उस समय तप और प्रभाव ही उनकी ज्येष्ठताका कारण होता था ॥८४॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - 
हे ब्रह्मन ! आप मुझसे देव, दानव, गन्धर्व, सर्प और राक्षसोंकी उप्तत्ति विस्तारपूर्वक कहिये ॥८५॥
श्रीपराशरजी बोले - हे महामुने ! स्वयम्भूभगवान् ब्रह्माजीकी ऐसी आज्ञा होनेपर कि 'तुम प्रजा उप्तन्न करो' दक्षने पूर्वकालमें जिस प्रकार प्राणियोंकी रचना की थी वह सुनो ॥८६॥
उस समय पहले तो दक्षने ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियोंको ही उप्तन्न किया ॥८७॥
इस प्रकार रचना करते हुए जब उनकी वह प्रजा और न बढी़ तो उन प्रजापतिने सृष्टिकी वृद्धिके लिये मनमें विचारकार मैथुनधर्मसे नाना प्रकारकी प्रजा उप्तन्न करनेकी इच्छासे वीरण प्रजापतिकी अति तपस्वीनी और लोकधारिणी पुत्री असिक्रीस विवाह किया ॥८८-८९॥
तदनन्तर वीर्यवान् प्रजापति दक्षने सर्गकी वृद्धिके लिये वीरणसुता असिक्रीसे पाँच सहस्त्र पुत्र उप्तन्न किये ॥९०॥
उन्हें प्रजा वृद्धिके इच्छुक देख प्रियवादी देवर्षि नारदने उनके निकट जाकर इस प्रकार कहा - ॥९१॥
'हे महापराक्रमी हर्यश्वगण ! आप लोगोंकी ऐसी चेष्टा, प्रतीत होती है कि आप प्रजा उप्तन्न करेंगे, सो मेरा यह कथन सुनो ॥९२॥
खेदकी बात है, तुम लोग अभी निरे अनभिज्ञ हो क्योंकि तुम इस पृथिवीका मध्य, ऊर्ध्व ( ऊपरी भाग ) और अधः ( नीचेका भाग ) कुछ भी नहीं जानतें, फिर प्रजाकी रचना किस प्रकार करोगे ? देखो, तुम्हारी गति इस ब्रह्माण्डमें ऊपर नीचे और इधर उधर सब और अप्रतिहत ( बे - रोक - टोक ) है; अतः हे अज्ञानियो ! तुम सब मिलकर इस पृथिवीका अन्त क्यों नहीं देखते ? ॥९३-९४॥
नारदजीके ये वचन सुनकर वे सब भिन्न भिन्न दिशाओंको चले गये और समुद्रमें जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटतीं उसी प्रकार वे भी आजतक नहीं लौटे ॥९५॥
हर्यश्वौंके इस प्रकार चले जानेपर प्रचेताओंके पुत्र दक्षने वैरुणीसे एक सहस्त्र पुत्र और उप्तन्न किये ॥९६॥
वे शबलश्वगण भी प्रजा बढ़ानेके इच्छुक हुए, किन्तु हे ब्रह्मन ! उनसे नारदजीने ही फिर पूर्वोक्त बातें कह दीं । तब वे सब आपसमें एक दूसरेसे कहने लगे - महामुनि नारदजी ठीक कहते हैं, हमको भी, इसमें सन्देह नहीं, अपने भाइयोंके मार्गका ही अवलम्बन करना चाहिये । हम भी पृथिवीका परिणाम जानकर ही सृष्टि करेंगे । ' इस प्रकार वे भी उसी मार्गसे समस्त दिशाओंको चले गये और समुद्रगत नदियोंके समान आजतक नहीं लौटे ॥९७-९८॥
हे द्विज ! तबसे ही यदि भाईको खोजनेके लिये भाई ही जाय तो वह नष्ट हो जाता है, अतः विज्ञ पुरुषको ऐसा न करना चाहिये ॥१००॥
महाभाग दक्ष प्रजापतिने उन पुत्रोंको भी गये जान नारदजीपर बड़ा क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया ॥१०१॥
हे मैत्रेय ! हमने सुना है कि फिर उस विद्वान् प्रजापतिने सर्गवृद्धिकी इच्छासे वैरुणीमें साठ कन्याएँ उप्तन्न कीं ॥१०२॥
उनमेंसे उन्होंने दस धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस सोम ( चन्द्रमा ) को और चार अरिष्टनेमिको दीं ॥१०३॥
तथा दो बहुपुत्र, दो अंगिरा और दो कृशाश्वको विवाहीं । अब दो उनके नाम सुनो ॥१०४॥
अरुन्धती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, मरुत्वती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और विश्वा-ये दस धर्मकी पत्नियाँ थीं; अब तुम इनके पुत्रोंका विवरण सुनो ॥१०५॥
विश्वाके पुत्र विश्वदेवा थे, साध्यासे साध्यगण हुए, मरुत्वतीसे मरुत्वान और वसुसे वसुगण हुए तथा भानुसे भानु और मुहूर्तासे मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए ॥१०६॥
लम्बासे घोष, यामीसे नागवीथी और अरुन्धतीसे समस्त पृथिवीविषयक प्राणी हुए तथा संकल्पासे सर्वात्मक संकल्पकी उप्तत्ति हुई ॥१०७-१०८॥
नाना प्रकारका वसु ( तेज अथवा धन ) ही जिनका प्राण है ऐसे ज्योति आदि जो आठ वसुगण विख्यात हैं , अब मैं उनके वंशका विस्तार बताता हूँ ॥१०९॥
उनके नाम आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल (वायु), अनल ( अग्नि ), प्रत्यूष और प्रभास कहे जाते हैं ॥११०॥
आपके पुत्र वैतण्ड, श्रम, शान्त और ध्वनि हुए तथा ध्रुवके पुत्र लोक संहारक भगवान् काल हुए ॥१११॥
भगवान् वर्चा सोमके पुत्र थे जिनसे पुरुष वर्चस्वी ( तेजस्वी ) हो जाता है और धर्मके उनकी भार्या मनोहरासे द्रविण, हुत एवं हव्यवह तथा शिशिर, प्राण और वरुण नामक पुत्र हुए ॥११२-११३॥
अनिलकी पत्नी शिवा थी; उससे अनिलके मनोजव और अविज्ञातगति - ये दो पुत्र हुए ॥११४॥
अग्निके पुत्र कुमार शरस्तम्ब ( सरकाण्डे ) से उप्तन्न हुए थे, ये कृत्तिकाओंके पुत्र होनेसे कार्तिकेय कहलाये । शाख, विशाख और नैगमेय इनके छोटे भाई थे ॥११५-११६॥
देवल नामक ऋषिको प्रत्यूषका पुत्र कहा जाता है । इन देवलके भी दो क्षमाशील और मनीषी पुत्र हुए ॥११७॥
बृहस्पतिजीकी बहिन वरस्त्री, जो ब्रह्माचारिणी और सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्त-भावसे समस्त भूमण्डलमें विचरती थी, आठवें वसु प्रभावकी भार्या हुई ॥११८॥
उससे सहस्त्रों शिल्पो ( कारीगरियों ) के कर्ता और देवताओंके शिल्पी महाभाग प्रजापति विश्वकर्माका जन्म हुआ ॥११९॥
जो समस्त शिल्पकारोंमें श्रेष्ठ और सब प्रकारके आभूषण बनानेवाले हुए तथा जिन्होने देवताओंके सम्पूर्ण विमानोंकी रचना की और जिन महात्माकी ( आविष्क्रुता ) शिल्पविद्याके आश्रयसे बहुत-से मनुष्य जीवन-निर्वाह करते हैं ॥१२०॥
उन विश्वकर्माके चार पुत्र थे; उनके नाम सुनो । वे अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा और परमपुरुषार्थी रुद्र थे । उनमेंसे त्वष्टाके पुत्र महातपस्वी विश्वरूप थे ॥१२१॥
हे महामुने ! हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली - ये त्रिलोकीके अधीश्वर ग्यारह रुद्र कहे गये हैं । ऐसे सैकड़ों महातेजस्वी एकादश रुद्र प्रसिद्ध हैं ॥१२२-१२३॥
जो ( दक्षकन्याएँ ) कश्यपजीकी स्त्रियाँ हुईं उनके नाम सुनो- वे आदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रु और मुनि थीं । हे धर्मज्ञ ! अब तुम उनकी सन्तानका विवरण श्रवण करो ॥१२४-१२५॥
पूर्व ( चाक्षूष ) मन्वन्तरमें तुषित नामक बारह श्रेष्ठ देवगण थे ! वे यशस्वी सुरश्रेष्ठ चाक्षुष मन्वन्तरके पश्चात् वैवस्वत-मन्वन्तरके उपस्थित होनेपर एक दुसरेके पास जाकर मिले और परस्पर कहने लगे ॥१२६-१२७॥
"हे देवगण ! आओ, हमलोग शीघ्र ही अदितिके गर्भमें प्रवेश कर इस वैवस्वत मन्वन्तरमें जन्म लें, इसीमें हमारा हित है" ॥१२८॥
इस प्रकार चाक्षुष मन्वन्तरमें निश्चयकर उन सबसे मरीचिपुत्र कश्यपजीके यहाँ दक्षकन्या अदितिके गर्भसे जन्म लिय ॥१२९॥
वे अति तेजस्वी उससे उप्तन्न होकर विष्णु, इंन्द्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, पूषा, विवस्वान, सविता, मैत्र, वरूण, अंशु और भग नामक द्वादश आदित्य कहलाये ॥१३०-१३१॥
इस प्रकार पहले चाक्षुष मन्वन्तरमें जो तुषित नामक देवगण थे वे ही वैवस्वत-मन्वन्तरमें जो तुषित नामक देवतण थे वे ही वैवस्वत-मन्वन्तरमें द्वादश आदित्य हुए ॥१३२॥
सोमकी जिन सत्ताईस सुव्रता पत्नियोंके विषयसे पहले कह चुके हैं वे सब नक्षत्रयोगिनी हैं और उन नमोंसे ही विख्यात हैं ॥१३३॥
उन अति तेज्स्विनियोंसे अनेक प्रतिभाशाली पुत्र उप्तन्न हुए । अरिष्टनेमिकी पत्नियोंके सोलह पुत्र हुए ! बुद्धिमान बहुपुत्रकी भार्या ( कपिला, अतिलोहिता, पीता और अशिता * नामक ) चार प्रकारकी विद्युत कही जाती हैं ॥१३४-१३५॥
ब्रह्मार्षियोंसे सत्कृत ऋचाओंके अभिमानी देवश्रेष्ठ प्रत्यंगिरासे उप्तन्न हुए हैं तथा शास्त्रोंके अभिमानीं देवप्रहरण नामक देवगण देवर्षि कृशाश्र्वकी सन्तान कहे जाते हैं ॥१३६॥
हे तात ! ( आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, प्रजापति और वषट्‌कार ) ये तैंतीस वेदोक्त देवता अपनी इच्छानुसार जन्म लेनेवाले हैं । कहते हैं, इस लोकमें इनके उप्तति और निरोध निरन्तर हुआ करते हैं । ये एक हजार युगके अनन्तर पुनः-पुनः उप्तन्न होते रहते हैं ॥१३७-१३८॥
हे मैत्रेय ! जिस प्रकार लोकमें सूर्यके अस्त और उदय निरन्तर हुआ करते हैं उसी प्रकार ये देवगण भी युग युगमें उप्तन्न होते रहते हैं ॥१३९॥
हमने सुना है दितिके कश्यपजीके वीर्यसे परम दुर्जय हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र तथा सिंहिका नामकी एक कन्या हुई जो विप्रचित्तिको विवाही गयी ॥१४०-१४१॥
हिरण्यकशिपुणे अति तेजस्वी और महापराक्रमी अनुह्लाद, ह्लाद, बुद्धिमान्‌ प्रह्लाद और संह्लाद नामक चार पुत्र हुए जो दैत्यंवंशको बढ़ानेवाले थे ॥१४२॥
हे महाभाग ! उनमें प्रह्लादजी सर्वत्र समदर्शीं और जितेन्द्रिय थे, जिन्होंने श्रीविष्णुभगवान्‌की परम भक्तिका वर्णन किया था ॥१४३॥
जिनको दैत्यराजाद्वारा दीप्त किये हुए अग्निने उनके सर्वांगडे व्याप्त होकर भी, हृदयमें वासुदेव भगवान्‌के स्थित रहनेसे नहीं जला पाया ॥१४४॥
जिन अमहाबुद्धिमानके पाशबद्ध, होकर समुद्रके जलमें पड़े-पड़े इधर-उधर हिलने-डुलनेसे सारी पृथिवी हिलने लगी थी ॥१४५॥
जिनका पर्वतके समान कठोर शरीर, सर्वत्र भगवच्चित रहनेके कारण दैत्यराजके चलाये हुए अस्त्र-शस्त्रोंसे भी छिन्न-भिन्न नहीं हुआ ॥१४६॥
दैत्यराजाद्वारा प्रेरित विषाग्निसे प्रज्वलित मुखवाले सर्प भी जिन महातेजस्वीका अन्त नहीं कर सके ॥१४७॥
जिन्होंने भगवत्स्मरणरूपी कवच धारण किये रहनेके कारण पुरुषोत्तम भगवान्‌का स्मरण करते हुए पत्थरोंकी मार पड़नेपर भी अपने प्राणोंको नहीं छोड़ा ॥१४८॥
स्वर्गनिवासी दैत्यपतिद्वारा ऊपरसे गिराये जानेपर जिन महामतिको पृथिवीने पास जाकर बीचहीमें अपनी गोदमें धारण कर लिया ॥१४९॥
चित्तमें श्रीमधुसूदनभगवान्‌के स्थित रहनेसे दैत्यराजका नियुक्त किया हुआ सबका शोषण करनेवाला वायु जिनके शरीरमें लगनेसे शान्त हो गया ॥१५०॥
दैत्येन्दद्वारा आक्रमणके लिये नियुक्त उन्मत्त दिग्गजोंके दाँत जिनके वक्षःस्थलमें लगनेसे टुट गये और उनका सारा मद चर्ण हो गया ॥१५१॥
पूर्वकालमें दैत्यराजके पुरोहितोंकी उप्तन्न की हुई कृत्या भी जिन गोविन्दासक्तचित्त भक्तराजके अन्तका कारण नहीं हो सकी ॥१५२॥
जिनके ऊपर प्रयुक्त की हुई अति मायावी शम्बरासुरकी हजारों मायाएँ श्रीकृष्णचन्द्रके चक्रमे व्यर्थ हो गयीं ॥१५३॥
जिन मतिमान् और निर्मत्सरने दैत्यराजके रसोइयोंके लाये हुए हलाहल विषको निर्विकार - भावसे पचा लिया ॥१५४॥
जो इस संसरमें समस्त प्रणियोंके प्रति समानचित्त और अपने समान ही दुसरोंके लिये भी परमप्रेमयुक्त थे ॥१५५॥
और जो परम धर्मात्मा महापुरुष, सत्य एवं शौर्य आदि गुणोंकी खानि तथा समस्त साधु-पुरुषोंके लिये उपमास्वरूप हुए थे ॥१५६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे पत्र्चदशोऽध्यायः ॥१५॥
 

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