विपत्ति दे तीहि हवी विकासा
करुन माता अनुराग राग। विकासवी बाळ- मनोविभाग
फुले करु सेवुन उष्णशीत। जगी असे हीच विकासरीत।।
पिका हवे ऊन तसे पाणी। तरीच ते येइल भरभरोनी
प्रभो! न संपत्ती सदैव मागे। विपत्तिही दे मज सानुरागे।।
कभिन्न काळे घनमेघ येती। परी जगा जीवनाधार देती
विपत्ति येतील अनेक घोर। परंतु देतील विकास थोर।।
विपत्ति ही चित्तविकास- माता। दुजा नसे सदगुरु बोधदाता
विपत्ति मानीन सदा पवित्र। विपत्ति माझे घडवी चरित्र
विपत्ति मानीन मनी अमोल। विपत्ति माझे बनवील शील
विपत्ति आकार मनास देई। विपत्ति खोटे भ्रम दूर नेई।।
विपत्ति आणील जळास डोळा। मिळेल पाणी तरि जीवनाला
विपत्ति डोके जरि तापवील। स्वजीवना ऊबच ती मिळेल।।
विपत्ति मांगल्यखनी खरीच। विपत्तिरुपे मिळतो हरीच
उराशि मी लाविन ती विपत्ति। कधी न जाईन जळून चित्ती।।
विपत्तिमाजीच विकासबीज। घनांतरी वास करीत वीज
विपत्तिंतून प्रकटेल तेज। विपत्तिपंकी शुभचित्सरोज।।
कधी न लागे झळ ज्या नराला। न आच लागे कधि यन्मनाला
तया न पूर्णत्व कधी मिळेल। गंभीर त्या जीवन ना कळेल।।
विपत्ति ही जीवनवीट भाजी। विपत्ति संजीवनधार पाजी
विपत्ति आणी रुचि जीवनाला। विपत्ति दे स्फूर्ति सदा मनाला।।
प्रकाश अंधार, तरीच वाढ। सदा न मारा न सदैव लाड
विपत्ति द्या, द्या मधुन प्रकाश। प्रभो! असे मागतसे पदांस।।
विपत्ति दे तीही हवी विकासा। सदैव देशील करील नाशा
सदैव थंडी, तरि गारठेल। कळी, न ती सुंदरशी फुलेल।।
सदैव दु:खे तरि ये निराशा। दिसे न मांगल्य दिसे न आशा
मनी शिरे द्वेष तशीच चीड। भरे तिरस्कार मनी उदंड।।
म्हणून देवा! प्रणती पदास। विपत्ति ना संतत दे कुणास
करुन कारुण्य करुन कोप। विकसवी जीवन- रम्यरोप।।
प्रभो! विनम्र प्रणती पदांस। विपत्ति दे तीहि करी विकास
परी कृपाळा! न सदैव ती दे। तरीच मांगल्य मनात नांदे।।
-धुळे तुरुंग, मे १९३४