इतने दिनों तक भारतवर्ष में रहने के पश्चात् मुझे यह ज्ञात हो गया कि सेना विभाग में काम बहुत ही कम है। खूब भोजन करना, घुड़सवारी करना, चाँदमारी करना, परेड करा देना, यही हम लोगों का काम था और सप्ताह में तीन-चार दिन सिनेमा देखना। मैंने अपने ऊपर और कुछ काम ले लिये थे। जैसे उर्दू पढ़ना, इस देश का इतिहास, यहाँ की पुरानी बातों का अध्ययन, पुरातत्त्व, रीति इत्यादि! उर्दू में इधर पाँच-छः महीनों में मैंने बहुत उन्नति कर ली थी। मौलवी साहब पहले की भाँति सप्ताह में तीन दिन आते थे और उन्होंने अब मुझे कविता पढ़ानी आरम्भ कर दी थी।

मौलवी साहब जब कविता पढ़ाते थे तब वह कवि के भावों का चित्र खड़ा कर देते थे। मेरा निश्चित मत है कि ब्रिटिश सेना के लिये उर्दू कविता का पठन-पाठन बहुत आवश्यक है क्योंकि उसमें उदात्त सैनिक भावनायें शब्दों में रहती हैं। यद्यपि पुराने समय की होने के कारण उसमें तीर, तलवार, ढाल इत्यादि के ही विशेष रूप से वर्णन हैं और आधुनिक शस्त्रों का जैसे हवाई जहाज, बम, टारपीडो, मशीनगन के वर्णनों का अभाव है फिर भी जहाँ सिद्धांतों का सवाल है, उर्दू कविता तथा भारत का सैनिक विभाग एक ही मत के अनुयायी हैं। सैंडहर्स्ट का जो सैनिक कॉलेज है उसमें उर्दू कविता अनिवार्य हो जानी चाहिये। जो स्थान कुरआन का इस्लाम धर्म में है, वही स्थान उर्दू कविता को सैनिक विभाग में मिलना चाहिये।

यह भाव मुझमें कैसे आ गये उसका एक कारण है। एक दिन मौलवी साहब ने एक कविता सुनायी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ यह थीं -

खूने - दिल पीने को  लख्ते - जिगर खाने को

यह गिजा मिलती है जानाँ तिरे दीवाने को

जानाँ प्रेमिका को कहते हैं और दीवाना उसके प्रेमी को। मुझे आश्चर्य हुआ और मैंने पूछा है कि कौन-सी प्रेमिका थी जिसके प्रेमी चीता या सिंह या भेड़िया थे जिनका आहार कलेजे का टुकड़ा और पेय हृदय का रुधिर था। मौलवी साहब ने इसे अनेक भाँति से समझाने की चेष्टा की, परन्तु यह तो एक थी। इसी भावना की सारी पुस्तक की कवितायें थीं। एक पंक्ति थीं -

सुना ये है कि वो मकतल में खंजर ले के बैठे हैं

बला से जान जायेगी तमाशा हम भी देखेंगे

खंजर हथियार पुराना है और आजकल मशीनगन अथवा कम से कम पिस्तौल का प्रयोग अधिक अच्छा होता है, फिर भी मार-काट की भावना को जाग्रत रखना सेना तथा सेनानी दोनों का धर्म है।

मैं उर्दू कविता का एक संकलन करके सेना विभाग के अध्यक्ष के पास भेजने वाला हूँ। भारत सरकार की स्वीकृति लेकर उसे सेना विभाग के लिये प्रकाशित कर देना बड़ा लाभदायक होगा।

मौलवी साहब कहा करते थे कि यह बातें प्रेम-सम्बन्धी हैं और प्रेमी-प्रेमिका के लिये लिखी गयी हैं। मैंने उनसे पूछा कि प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और वियोग में एक-दूसरे की स्मृति में तड़पते हैं कि प्रेमिका प्रेमी का गला रेतती है, जैसे-रगड़ते हैं गला खंजर पे ये शौके-शहादत है - या किसी की छाती में छुरा घुसेड़ देना अथवा एक साथ अनेक तीरों के फव्वारे छोड़ना प्रेम के चिह्न नहीं हो सकते और यदि यही प्रेम के चिह्न हैं तो भारत के प्रेमियों का बड़ा साहस है।

मुझे अनेक भाषाओं के साहित्य का ज्ञान तो नहीं है। हमारी अपनी भाषा में भी आँख की उपमा तीर से दी गयी है, किन्तु कटार चलाना और खून की नदी बहाना और कलेजे में छुरी भोंकना और फेफड़े की बोटी-बोटी काटना तो सिवाय युद्ध के और कहीं सुना नहीं।

मैं तो अपने रेजिमेंट में यह व्यवस्था करनेवाला हूँ कि हाथ में तलवार लेकर एक-एक उर्दू कविता की पंक्ति पढ़ते चलें और हाथ भाँजते चलें। जैसे ताल पर नृत्य होता है वैसे ही प्रत्येक शेर पर छुरी भोंकते चलें।

मौलवी साहब ने एक दिन कहा कि आप मेरी भाषा की हँसी उड़ाया करते हैं। आप कल मुशायरे में चलिये। यहाँ एक मुशायरा होने वाला है। तब आप इसके जोर को समझ सकेंगे।

मैंने पूछा - 'मुशायरा क्या चीज है?'

मौलवी साहब ने कहा कि उर्दू कविता की दो पंक्तियों को शेर कहते हैं। मुशायरा एक जलसा होता है जहाँ उर्दू की रचनायें पढ़नेवाले आते हैं। मैंने पूछा, 'क्या उर्दू में पुस्तकें कम छपती हैं, पढ़ने से क्या अभिप्राय?' मौलवी साहब बोले कि इससे कवि की भावना अधिक अच्छे प्रकार से जानी जाती है।

मैंने कहा, 'यद्यपि आपकी कृपा से अब समझ भी सकता हूँ, परन्तु उन लोगों की ऊँची बातें कैसे समझ सकता हूँ? फिर भी ऐसे स्थान पर मैं जा कैसे सकता हूँ? लोग क्या समझेंगे।

मौलवी साहब ने कहा कि मैं सब प्रबन्ध कर दूँगा।

दूसरे दिन छपे कार्ड पर निमन्त्रण मिला और मौलवी साहब ने कहा कि यदि मेरी राय आप मानें तो आप अचकन और चूड़ीदार पायजामा पहनकर चलें तो अधिक उत्तम होगा। यों तो आप चाहे जिस प्रकार का कपड़े पहनकर जा सकते हैं, परन्तु यदि आप उन कपड़ों को पहनेंगे जिन्हें मैं बताता हूँ तो सबके साथ बैठ सकेंगे।

मैंने इसे स्वीकार किया। मैंने कहा कि यदि इस प्रकार से प्रबन्ध हो सके तो मैं चल सकूँगा।

मौलवी साहब आठ बजे रात में मेरे पास आये। मैंने एक ताँगा मँगवाया और चला। कर्नल साहब से कहला दिया कि मौलवी साहब के यहाँ भोजन है, मैं वहीं जा रहा हूँ, देर हो सकती है।

हम लोग साढ़े आठ बजे ठीक स्थान पर पहुँच गये। वहाँ फर्श बिछा हुआ था, रोशनी गिलासों में जल रही थी। कमरे में एक ओर एक छोटी-सी चौकी रखी थी और उसी के निकट एक गद्दी बिछी थी। एक तकिया रखा था, दीवार के चारों ओर कुर्सियाँ रखी थीं। उन्हीं में एक पर जाकर बैठ गया। केवल चार-पाँच आदमी वहाँ दिखायी दिये। नौ बजे, फिर दस, अब कुछ-कुछ लोग दिखायी दिये। मैंने सोचा था कि दस बजे तक सब कार्य समाप्त हो जायेगा, किन्तु अभी तो लोग आ रहे थे। साढ़े दस बजे एक सज्जन आये जिनके आते ही सब लोग खड़े हो गये। इस समय वहाँ जितने लोग थे उनमें अधिकांश दाढ़ी रखे हुए थे। एक चौथाई इंच से लेकर डेढ़ फुट तक की दाढ़ियाँ दिखायी पड़ीं। ऐसे लोग भी थे जिनके दाढ़ी नहीं थी और कपड़े भी विचित्र थे। कुछ लोग कमर से चैक की डिजायन के कपड़े लपेटे हुए, कुछ लोगों के पाँव में ऐसा जान पड़ता था कपड़ा लपेटकर सिला गया है।

कुछ लोग इतना चौड़ा पायजामा पहने हुए थे जिसमें एक मनुष्य को सरलता से शरण मिल सकती थी। टोपियाँ भी विभिन्न भाँति की थीं। कोई कब्र की शक्ल की, कोई कुतुबमीनार की तरह, किसी-किसी में एक पूँछ लटक रही थी, कुछ लोग ऐसी टोपियाँ लगाये थे जिनसे जान पड़ता था कि वैद्यों का खरल उलटकर सिर पर रख लिया है। रंग भी वैसे ही अनेक थे। चूने पुती दीवार-सी सफेद से लेकर ऐसी कि जिन्हें निचोड़ा जाये तो दो आउंस तेल कम से कम निकल सकता था।

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