आवाहन
१.

हिंसाय उन्मत्त पृथ्वी, नित्य निठुर द्वंद्व
घोर कुटील पंथ तार लोभ-जटिल बन्ध।
नूतन तव जन्मलागि कातर जत प्राणी
करो त्रण महाप्राण, आनो अमृतवाणी,
विकसित करो प्रेम-पद्म चिरमधु-निप्यन्द।
शान्त हे, मुक्त हे, हे अनन्त-पुण्य,
करुणाघन, धरणीतल करो कलंक-शून्य।।

२.

एसो दानवीर, दाओ त्याग-कठिन दीक्षा,
महाभिक्षु, लओ सबार अहंकार-भिक्षा।
लोक लोक भुलक् शोक, खंडन करो मोह,
उज्ज्वल होक् ज्ञान-सूर्य-उदय-समारोह,
प्राणी लभुक् सकल भुवन, नयन लभुक् अन्ध।
शान्त हे, मुक्त हे, हे अनन्त-पुण्य,
करुणाघन, धरणीतल करो कलंक-शून्य।।

३.

क्रन्दनमय निखिल हृदय तापदहन-दीप्त,
विषय-विष-विकार-जीर्ण खिन्न अपरितृप्त।
देश देश परिल तिलक रक्तकलुष ग्लानि,
तव मंगल शंख आनो, तव दक्षिण पाणि,
तव शुभ संगीत राग, तव सुंदर छन्द।
शान्त हे, मुक्त हे, हे अनन्त-पुण्य,
करुणाघन, धरणीतल करो कलंक-शून्य।।

श्री. रवीन्दनाथ ठाकूर

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