मंदिर बहुत दूर नहीं है। लेकिन जयसिंह निर्जन नदी के किनारे से होते हुए बहुत घूम कर धीरे-धीरे मंदिर की ओर चला। उसके मन में भारी चिन्ता उठने लगी। एक जगह नदी के किनारे पेड़ के नीचे बैठ गया। दोनों हाथों से चेहरा ढक कर सोचने लगा, 'एक काम निबटा दिया, लेकिन संशय नहीं मिट रहा है। आज से मेरा संशय कौन दूर करेगा! क्या अच्छा है, क्या बुरा , आज से कौन मुझे समझाएगा! संसार के हजारों-करोड़ों रास्तों के मुहाने पर खड़ा, किससे पूछूँ कौन-सा सत्य मार्ग है! वृक्षहीन दूर पथ पर मैं एकाकी अंधा खड़ा हूँ, आज मेरी लाठी टूट गई।'

जयसिंह जब उठा, तो वर्षा आरम्भ हो गई। भीगते-भीगते मंदिर की ओर चल पड़ा। देखा, दल बाँधे बहुत सारे लोग कोलाहल मचाते हुए मंदिर की ओर से चले आ रहे हैं।

बूढ़ा बोल रहा है, "पता है, बाप-दादा के जमाने से यही चला आ रहा है, आज राजा की बुद्धि ने क्या उन सबको ही पीछे छोड़ दिया!"

युवा कह रहा है, "अब मंदिर में आने का और मन नहीं करता, पूजा की वह धूम ही नहीं है।"

कोई बोला, "यह जैसे नवाबों की राजशाही बन कर खड़ी हो गई है।"

उसके मन का भाव यही है कि बलि के सम्बन्ध में दुविधा एक मुसलमान के मन में ही पैदा हो सकती है, एक हिन्दू के मन में पैदा होना आश्चर्य की बात है।

स्त्रियाँ बोलने लगीं, "इस राज्य का भला नहीं होगा।"

एक बोली, "पुरोहित ठाकुर1 ने खुद कहा है, माँ ने बोला है कि यह देश तीन महीने में महामारी में बरबाद हो जाएगा।"

हारू बोली, "यही देखो-ना, मोधो आज डेढ़ बरस से बीमारी भोग कर भी लगातार जीता आ रहा था, जैसे ही बलि बंद हुई, वैसे ही मर गया।"

क्षान्त बोली, "वह क्यों, मेरे जेठ का लडका, किसे पता था, मर जाएगा! तीन दिन ज्वर। जैसे ही कविराज की गोली खाई, वैसे ही आँखें पलट गईं।"

जेठ के लडके के शोक में और राज्य के अमंगल की आशंका में क्षान्त दुखी हो गई।

तिनकौड़ी बोला, "उस दिन मथुरहाट की मंडी में आग लग गई, एक छप्पर तक नहीं बचा।"

चिंतामणि किसान ने अपने एक साथी किसान से कहा, "इतनी बातों का क्या काम, देखते क्यों नहीं, इस बरस धान जैसे सस्ता हो गया है, वैसे और किसी बरस नहीं हुआ। कौन जाने, इस बरस किसानों के भाग्य में क्या है!"

बलि बंद होने के बाद और पहले भी जिसका जो कुछ नुकसान हुआ, सर्व सम्मति से बलि बंद होना ही उसका एकमात्र कारण निर्धारित हुआ। इस देश को छोड़ कर चले जाना ही अच्छा है, सभी की ऐसी राय बन गई। यह राय जरा-सी भी बदली तो नहीं, लेकिन रहते सभी देश में ही रहे।

जयसिंह अनमना था। इन लोगों की ओर तनिक भी ध्यान न देकर वह मंदिर में जा पहुँचा; देखा, रघुपति पूजा निबटा कर मंदिर के बाहर बैठा है।

जयसिंह ने तेजी से रघुपति के निकट जाकर कातर, परन्तु दृढ स्वर में पूछा, "गुरुदेव, आज प्रभात में जब मैंने माँ का आदेश ग्रहण करने के लिए माँ से प्रश्न किया था, तब आपने क्यों उसका उत्तर दिया?"

रघुपति थोड़ा इधर-उधर करते हुए बोला, "माँ तो मेरे द्वारा ही अपने आदेश का प्रचार करती हैं, वे अपने मुँह से कुछ नहीं कहतीं।"

जयसिंह ने कहा, "आप सम्मुख आकर क्यों नहीं बोले? ओट में छिपे रह कर मुझसे छल क्यों किया?"

रघुपति ने क्रुद्ध होकर कहा, "चुप करो। मैं क्या सोच कर क्या करता हूँ, तुम क्या समझोगे? बाचाल की तरह जो मुँह में आए, वही मत बको। मैं जो आदेश दूँ, तुम केवल उसी का पालन करो, कोई सवाल मत करो।"

जयसिंह चुप रहा। उसका संशय कम होने के बजाय बढ़ गया। कुछ देर बाद बोला, "आज प्रात: मैंने माँ के सम्मुख कहा था, अगर उन्होंने अपने मुँह से आदेश नहीं दिया, तो मैं कभी भी राज-हत्या नहीं होने दूँगा, उसमें विघ्न डालूँगा। जब पक्का समझ में आ गया कि माँ ने आदेश नहीं दिया है, तो महाराज से नक्षत्रराय के संकल्प को प्रकट कर देना पड़ा, उन्हें सतर्क कर दिया है।"

रघुपति कुछ देर तक चुप बैठा रहा। उद्वेलित क्रोध का दमन करके दृढ स्वर में बोला, "मंदिर में आओ।"

दोनों मंदिर में आ गए।

रघुपति ने कहा, "माँ के चरण स्पर्श करके शपथ लो - बोलो, उनतीसवें आषाढ़ तक मैं राज-रक्त लाकर इन चरणों में अर्पित करूँगा।"

जयसिंह कुछ देर गर्दन झुकाए मौन रहा। उसके बाद एक बार गुरु के चेहरे तथा एक बार प्रतिमा के चेहरे की ओर देखा। प्रतिमा का स्पर्श करके धीरे-धीरे बोला, "उनतीसवें आषाढ़ तक मैं राज-रक्त लाकर इन चरणों में अर्पित करूँगा।"

Comments
raginibagwe19

बहोत सुन्दर उपन्यास। रविंद्रनाथ जी महान और सिद्धहस्त लेखक। नज़र के सामने सब घटनाएं प्रतीत होती लगती हैं। जंगल का वर्णन हों या मानवीय संवेदना का वर्णन सब जगहा हमें मानो हाथ पकड़े घूमा रहें हैं ऐसा अनुभव वास्तव में आता है।

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