हिन्दू धर्म में स्थूल दृष्टि से प्रसव के साथ सिर पर आए बालों को हटाकर खोपड़ी की सफाई करना आवश्यक होता है, सूक्ष्म दृष्टि से शिशु के व्यवस्थित बौद्धिक विकास, कुविचारों के उच्छेदन, श्रेष्ठ विचारों के विकास के लिए जागरूकता जरूरी है। स्थूल-सूक्ष्म उद्देश्यों को एक साथ सँजोकर इस संस्कार का स्वरूप निर्धारित किया गया है। इसी के साथ शिखा स्थापना का संकल्प भी जुड़ा रहता है। हम श्रेष्ठ ऋषि संस्कृति के अनुयायी हैं, हमें श्रेष्ठत्तम आदर्शो के लिए ही निष्ठावान तथा प्रयासरत रहना है, इस संकल्प को जाग्रत रखने के लिए प्रतीक रूप में शरीर के सर्वोच्च भाग सिर पर संस्कृति की ध्वजा के रूप में शिखा की स्थापना की जाती है।

इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं। लौकिक रीति यह प्रचलित है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ। यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं। इन्हें हटाने और उस स्थान पर मानवतावादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने का कार्य इतना महान एवं आवश्यक है कि वह हो सका, तो यही कहना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति तो पशु की बनी रही। ऐसे नर-पशुओं की संसार में कमी नहीं, जो चलते-बोलते तो मनुष्यों की तरह ही हैं; पर उनके आदर्श और मनोभाव पशुओं जैसे होते हैं। ईश्वर की अनुपम देन को निरथर्क गँवाने वाले इन लोगों को अभागा ही कहना पड़ता है। जीव साँप की योनि में रहते हुए बड़ा क्रोधी होता है, अपने बिल के आसपास किसी को निकलते देख ले, तो उस पर बड़ा क्रुद्ध होकर प्राण हरण करने वाला आक्रमण करने से नहीं चूकता। कितने ही मनुष्य उन क्रूर संस्कारों को धारण किये रहते हैं और छोटा सा कारण होने पर भी इतने क्रुद्ध, कुपित होते हैं कि उस आवेश में सामने वाले का प्राण हरण कर लेना भी उनके लिए कठिन नहीं रहता। जिन जीवों को शूकर की योनि के अभ्यास बने हुए हैं, वे अभक्ष्य खाने में कोई संकोच नहीं करते। मल-मूत्र, रक्त, माँस, कुछ भी वे रुचिपूवर्क खा सकते हैं, वरन् मेवा, फल दूध, घी जैसे सात्त्विक पदार्थों की उपेक्षा करते हुए ये उन अभक्ष्यों में ही अधिक रुचि एवं तृप्ति का अनुभव करते हैं। कुत्ते की तरह दुम हिलाने वाले, लकड़बग्घे की तरह निष्ठुर, लोमड़ी की तरह चंचल, जोंक की तरह रक्त पिपासु, कौए की तरह चालाक, मधुमक्खियों की तरह जमाखोर, बिच्छू की तरह दुष्ट, छिपकली की तरह घिनौने कितने ही मनुष्य होते हैं। किसी का भी खेत चरने में संकोच न हो, ऐसे साँड़ कम नहीं। जिन्होंने कामुकता की उफान में लज्जा और मयार्दा को तिलांजलि दे दी, ऐसे श्वान-प्रकृति के नर-पशुओं की कमी नहीं। दूसरों के घोंसले में अपने अण्डे पालने के लिए रख जाने वाली हरामखोर कोयलें कम नहीं, जो आरामतलबी के लिए अपने शिशु पोषण जैस महत्त्वपूण कत्तर्व्यों को भुलाते हुए दूसरों का मनोरंजन करने के लिए फूल वाली डालियों पर गाती-नाचती फिरती हैं। ऐसे लोभी भौंरे जो फूल के मुरझाते ही बेवफाई के साथ मुँह मोड़ लेते हैं, मनुष्य समाज में कम नहीं है। शुतुरमुर्ग की तरह अदूरदर्शी, भैंसे की तरह आलसी, खटमल और मच्छरों की तरह परपीड़क, मकड़ी और मक्खियों की तरह निरथर्क मनुष्यों की यहाँ कुछ कमी नहीं। यही प्रकृति मनुष्यों में भी रहे, तो उसका मनुष्य शरीर धारण करना निरथर्क ही नहीं, मानवता को कलंकित करने वाला ही कहा जायेगा। समझदार व्यक्तियों का सदा यह प्रयतन रहता है कि उनके द्वारा पाली पोसी गई सन्तान ऐसी न हो। संस्कारों की प्रतिष्ठापना बालकपन में ही होती है, इसलिए हमें अपने माता-पिता की वैसी सहायता न मिलने से मानवोचित विकास करने का अवसर भले ही न मिला हो, पर अपने बालकों के सम्बन्ध में तो वैसी भूल न की जाय, उन्हें तो सुसंस्कारी बनाया ही जाए। चूड़ाकमर्, मुण्डन-संस्कार के माध्यम से किसी बालक के सम्बन्ध में उसके सम्बन्धी परिजन, शुभचिन्तक यही योजना बनाएँ कि उसे पाशविक संस्कारों से विमुक्त एवं मानवीय आदशर्वादिता से ओत-प्रोत किस प्रकार बनाया जाए?

मुण्डन का प्रतीक कृत्य किसी देव स्थल तीथर् आदि पर इसलिए कराया जाता है कि इस सदुद्देश्य में वहाँ के दिव्य वातावरण का लाभ मिल सके। यज्ञादि धामिर्क कमर्काण्डों द्वारा इस निमित्त किये जाने वाले मानवीय पुरुषाथर् के साथ-साथ्ा सूक्ष्म सत्ता का सहयोग उभारा और प्रयुक्त किया जाता है।

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel