राजकुमारी सावित्री पिता के सामने खड़ी सामने खड़ी थी–सुंदर, सुकुमारी, लेकिन -संकल्प। उसके चेहरे पर हठ था। उसके पिता राजा अश्वपति उसके हठीले स्वभाव को खूब जानते थे, लेकिन उसके सामने अपने को विवश पाते थे। सावित्री ने पिता को याद दिलाया, “आपने कहा था कि मैं अपना पति स्वयं चुन सकती हूं। कहा था न? याद है न आपको, पिताजी? और अब आप अपने वचन से पीछे हट रहे हैं।" पिता-पुत्री एक दूसरे से कटु वचन न कह बैलें, इस डर से नारद मुनि बात काटकर बीच ही में बोल उठे, “पुत्री, तुम्हारे पिता अपना वचन नहीं तोड़ रहे हैं। वह मुझसे सत्यवान के बारे में ही पूछ रहे थे जिससे तुम विवाह करना चाहती हो। मैं उनसे बात कर रहा था तो उन्होंने कहा सावित्री को बुलवा लें। वे चाहते थे कि मैं जो कुछ कहूं, वह तुम स्वयं अपने कानों से सुनो।" "और आप क्या कह रहे थे?" सावित्री ने पूछा। सावित्री जानती थी कि

नारद के साथ बहुत सोच-समझ कर बात करनी चाहिए। सावित्री की बुद्धि बहुत तेज थी, लेकिन नारद उससे भी तेज थे। वह देवताओं और मनुष्यों दोनों के ही मित्र, सलाहकार और दूत थे। वह जो कुछ भी करते थे वह सब के भले के लिए ही होता। अंतिम परिणाम चाहे जितना सुखद हो, उनके काम प्रायः लोगों को अप्रिय लगते थे। नारद इतने चतुर थे कि कभी-कभी, बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग भी हार जाते थे। नारद के लिए सावित्री के मन में बड़ा आदर था। नारद ने कहा, “सत्यवान जिससे तुम प्रेम करती हो, बड़े प्रतिष्ठित वंश का राजकुमार है और बहुत योग्य है। उसके नाम से ही उसके सच्चरित्र का पता चलता है। सत्यवान अर्थात् जो केवल सत्य बोलता है। वह बुद्धिमान है, साहसी है, और पितृभक्त है। उसके अंधे वृद्ध पिता को उनके एक धोखेबाज संबंधी ने षड्यंत्र रचकर गद्दी से उतरवा दिया था। उनका जन्म तो हुआ था राजसिंहासन पर बैठने के लिए, लेकिन अब जंगल में रहते हैं और लकड़हारे का काम करते हैं बेचारे।' "मैं सब कुछ जानती हूं।" "तुम और भी बहुत कुछ जानती हो शायद,” उसके मन की थाह पाने की कोशिश करते हुए नारद ने कहा। "यह तो इस पर निर्भर करता है कि आप और क्या जानते हैं," सावित्री ने पैंतरा बदला नारद ने मुस्कराकर मन ही मन सोचा, “यह जरा-सी लड़की मुझे बनाने की कोशिश कर रही है!" उन्होंने कहा, “मुझे एक और बात मालूम है जो शायद तुम्हें नहीं मालूम। वही बात मैं अभी तुम्हारे पिता को बता रहा था।' “यही बात न कि सत्यवान की जन्मपत्री में लिखा है कि आज से ठीक एक वर्ष बाद उनकी मृत्यु हो जायेगी?" 4

इस साहस से राजकुमारी ने ये शब्द कहे कि दोनों श्रोता दंग रह गये! उसके पिता ने आवेश में आकर कहा, "फिर भी तुम उस युवक से विवाह करना चाहती हो?" उनकी आवाज कांप रही थी। नारद ने सोचते हुए सावित्री की ओर देखा और पूछा, “तुमने कैसे यह मालूम किया, सावित्री? क्या तुम सत्यवान के मां-बाप से मिली थी?" "हां,' सावित्री ने उत्तर दिया। "उनकी मां बहुत ही धर्मपरायणा हैं। उन्होंने ही मुझे बताया। सत्यवान के जन्म के बाद जिन पंडितों ने उनकी जन्मपत्री बनायी थी, उन्होंने उनके माता-पिता को सावधान कर दिया था। सत्यवान इस बात को नहीं जानते, लेकिन उनके मां-बाप जानते हैं। इतने वर्षों तक उन्होंने इस रहस्य को छिपाये रखा और चिंता के भार को चुपचाप सहते रहे।" नारद ने कहा, “एक बात बताओ, सावित्री। तुम समझती हो कि सत्यवान से विवाह करने पर तुम्हारा भविष्य कैसा होगा?" "जी हां,' सावित्री ने कहा। "तुम्हें भय नहीं लगता?" "दुखी अवश्य हूं," सावित्री ने गंभीरता से कहा, "लेकिन भय नहीं लगता। मैं यह नहीं मानती कि ब्राह्मण-पंडितों की गणना के अनुसार ग्रहों की स्थिति द्वारा जन्म और मृत्यु का निर्णय होता है। हम मनुष्य एक-दूसरे के जीवन को प्रभावित करते हैं। यदि मैं सत्यवान से विवाह करूंगी तो मेरे भाग्य का प्रभाव उसके जीवन पर पड़ेगा और कौन जाने क्या हो। हो सकता है कि होनी को रोका भी जा सके।" सावित्री की बात सुनकर नारद मुनि ने उठते हुए कहा, “इस विवाह में अब रुकावट न डालो, अश्वपति। तिलक की तैयारी करो। सावित्री उन्हें प्रणाम करने आयी तो उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखकर, गद्गद्-कंठ से कहा, "राजकुमारी, मैं केवल एक ब्रह्मचारी हूं, लेकिन मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। भगवान से 5

प्राथना करूंगा कि तुम्हारा मंगल करें। मेरी कामना है बेटी, कि तुम्हारा साहस सदा सत्यवान की रक्षा करे।" राजकुमारी उठकर अंदर जाने लगी तो अश्वपति उसकी ओर अपलक देखते रहे और ठंडी सांस भर कर बोले, “सावित्री को लड़का होना चाहिए था। स्त्रियों का इतना कुशाग्रबुद्धि होना अच्छा नहीं। कहीं इसकी प्रखर बुद्धि के कारण इसका अमंगल न हो।" नारद ने स्नेहपूर्ण तिरस्कार से कहा, “इन मामलों में इतने पुराने विचार नहीं होने चाहिए, अश्वपति। जो भी हो, सावित्री की प्रखर बुद्धि लकड़हारे पति, अंधे ससुर और बेहद धार्मिक सास के साथ वन में रहने में उसकी अवश्य सहायता करेगी।" लेकिन नारद की शंका गलत निकली। सावित्री-सत्यवान का विवाहित जीवन बहुत सुखी था। सावित्री को तो लगता कि जितना सुख वन में है उतना महल में नहीं। बहुत सवेरे जब पक्षी चहचहाने लगते और गऊएं रंभा-रंभा कर अपने बछड़ों को बुलाने लगती, सावित्री की आंख खुल जाती। सास-ससुर उसको इतना लाड़-प्यार करते थे कि वह माता-पिता के वियोग को भी सह गयी। सास-ससुर ने ही उसे जप-तप का संयम-नियम समझाया। इस प्रकार सुख और स्वाधीनता के वातावरण में दिन निकलते गये और सावित्री किशोरी से युवती हो गयी। सत्यवान की मृत्यु का भय हर समय उनके सुखी जीवन पर छाया रहता था। लेकिन सावित्री और उसके सास-ससुर के व्यवहार से यह जरा भी पता न चलता कि यह चिंता उन्हें घुन की तरह खाये जा रही है । 6

1 आखिर काल-दिवस आ पहुंचा। रोज की तरह सवेरा हुआ। पेड़ों पर चिड़ियां चहचहायीं, गऊएं रंभा-रंभा कर अपने बछड़ों को बुलाने लगीं। सत्यवान के माता-पिता चिंतित, उदास चेहरों से अपना-अपना काम-काज करने लगे। रह-रह कर वे प्रेम से इतने व्याकुल होकर पुत्र की ओर देखते कि सावित्री से सहा न जाता और वह अपना मुंह फेर लेती। सावित्री भी यंत्र के समान चुपचाप अपना काम कर रही थी। उसमें जैसे कुछ सोचने की शक्ति ही नहीं थी। सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जंगल जाने को तैयार हुआ तो सावित्री भी उठी। “मैं आज आपके साथ चलूंगी। चलूं?" उसने पूछा। "क्यों?'' सत्यवान ने कहा, “आजकल धूप बहुत तेज होती है। और फिर तुम्हारी आदत है इधर-उधर घूमने निकल जाती हो और खो जाती हो।" सावित्री ने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा, “आज मैं कहीं नहीं जाऊंगी। बस, बैठी-बैठी आपको देखती रहूंगी।" Than

अचानक सत्यवान की मां बोल उठीं, “उसको अपने साथ ले क्यों नहीं जाते, बेटा?" सत्यवान ने हंसकर शरारत भरी आंखों से पूछा, “क्यों मां, आज सवेरे-सवेरे अपनी बहू से छुटकारा पाना चाहती हो?" मां ने कहा, “नहीं, मैं अपने बेटे को समझाने की कोशिश कर रही हूं कि कभी-कभी पत्नी को दुलार करना चाहिए। इस बेचारी के लिए दिल बहलाने को यहां क्या रखा है।" "तो मैं इसको दुलार करूं, मां? मैं तो इसे हीरे और लाल का हार देना चाहता हूं। उसकी जगह जंगल की सैर... रहने भी दो, इससे क्या दिल बहलेगा?" सत्यवान की बात सुनकर सावित्री का दिल डूबने लगा, लेकिन अपनी व्यथा को छिपाकर, हंसकर उसने कहा, "ओह! हीरे-लाल का हार! खैर... आज तो जंगल की सैर करा दीजिए। लेकिन हार किसी न किसी दिन लेकर रहूंगी, छोडूंगी नहीं। याद रखिएगा। आपने वचन दिया है।" हंसते-बोलते, एक-दूसरे से बहुमूल्य उपहारों का वायदा करते, लापरवाह प्रसन्न बच्चों की तरह दोनों वन की ओर चले। जब सत्यवान ने माता-पिता को प्रणाम किया तो उनकी आंखें उसके चेहरे से हट नहीं पायीं। वे उसके शरीर पर हाथ फेरते रह गये। सावित्री ने ऐसा बहाना किया मानो उसने कुछ देखा ही न हो। उसको डर था कि कहीं आंखों से आंसू न बहने लगें। वह बार-बार अपने को समझाती रही, “आज मुझे अपने सारे साहस और संयम की जरूरत है। अपने मित्रों, ब्राह्मणों और नारद मुनि के आशीर्वाद की जरूरत है। अब मेरा भाग्य मेरे ही हाथों में है।" जंगल में पहुंच कर सत्यवान ने अच्छी तरह देख-भाल कर काटने के लिए एक पेड़ चुना, और उसके तने पर कुल्हाड़ी चलाने लगा। सावित्री चारों तरफ 8

ravi hintay 11 देखती रही कि कहीं से कोई सांप या बनैला पशु न आ जाए। वह सोच रही थी कि सांप या जंगली पशु के रूप में ही मृत्यु उसके पति पर वार करेगी। कुल्हाड़ी चलाते-चलाते अचानक सत्यवान ने अपना सिर थाम लिया और लड़खड़ाता हुआ पत्नी के निकट आया। "ओह कितनी भयंकर पीड़ा हो रही है सिर में," इतना कहना था कि गिरकर वह मूर्च्छित हो गया। सावित्री ने तुरंत पति का सिर अपनी गोद में रख लिया और इधर-इधर देखने लगी कि कहीं कोई है जिसे सहायता के लिए पुकारा जा सके? सत्यवान के मूर्च्छित होकर गिरने से सावित्री स्तब्ध होकर ऐसे बैठी रही मानों पत्थर की मूर्ति हो।

फिर अचानक सूर्य को ढंकती एक काली छाया उसके सामने आयी। एक काला अजनबी, काली छाया की तरह उसके सामने खड़ा था। वह झुका और उसका बड़ा काला हाथ क्षण-भर के लिए सत्यवान के कंठ पर आया। सावित्री ने सिर उठाकर देखा, लेकिन छाया हट गयी थी और दूर चली जा रही थी। "ठहरिए !" सावित्री ने चीखकर कहा और उसके पीछे भागी। “कृपा कर के ठहरिए। मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूं।" छाया रुक गयी। सावित्री पास चली आयी । उसकी आंखें जिस चेहरे को घूर रही थीं वह इतना गंभीर, इतना सौम्य था कि सावित्री का सारा भय गायब हो गया। वह बिल्कुल शांत और आश्वस्त हो गयी। उसने संकोच के साथ पूछा, “क्षमा कीजिएगा। क्या आप मृत्यु के

" 6 देवता हैं? मैंने आपके बारे में बहुत कुछ सुना हूं," सावित्री बोलती रही, "लेकिन अभी बहुत कुछ जानना चाहती हूं। एक बात पूछ सकती हूं? क्या आप हर एक के प्राणों को ले जाने स्वयं आते हैं?" मृत्यु के देवता ने आगे चलते-चलते कहा, "नहीं, मैं खास-खास लोगों के लिए ही आता हूं।" "यदि सत्यवान खास लोगों में थे तो इतनी कम अवस्था में उनका जीवन क्यों ले लिया गया? और फिर उन्होंने कोई अपराध भी तो नहीं किया था।" 'मृत्यु दंड नहीं है," यमराज बोले। । सावित्री जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगी ताकि उस अजनबी के साथ कदम मिलाकर चल सके। "मृत्यु अगर दंड नहीं है," उसने पूछा, “तो किस जीवन का कब अंत होगा, इसका फैसला कौन करता है? किसी के जन्म के समय ही उसकी मृत्यु का फैसला कर लेना तो अन्याय है। और फिर इसमें कोई तर्क भी नहीं है।" LAN

छाया ने रुककर कहा, “यह समझना आसान नहीं है। तुम वापस क्यों नहीं चली जाती, सावित्री? तुम मेरा पीछा क्यों कर रही हो?" "मैं आपका पीछा नहीं कर रही हूं," सावित्री ने भोलेपन से कहा। “मैं तो अपने पति के पीछे-पीछे जा रही हूं।" "लेकिन यह अब तुम्हारा पति नहीं है। सावित्री ने धीरे से कहा, "लेकिन मैं तो सोचती हूं कि प्रेम जीवन और मृत्यु से परे की चीज है। हम कहते हैं कि किसी स्त्री और पुरुष का आपस में प्रेम हो जाना केवल एक दूसरे को पहचान लेना है। आप पहचान उसी को सकते हैं जिससे पहले परिचय रहा हो। मैंने तो सत्यवान को पहली बार देखते ही पहचान लिया था। हम लोग पहले से ही एक-दूसरे को जानते हैं। और ऐसा दोनों के पूर्व जन्म में ही हुआ होगा। अपने पूर्व जन्म में हम एक-दूसरे को जानते थे, इस कारण इस जन्म में हम एक-दूसरे को देखते ही पहचान गये। इसी कारण मैं सत्यवान को नहीं छोड़ सकती। हमारा जन्म-जन्म का साथ है। यदि आप इन्हें ले जायेंगे तो मुझे भी ले जाना पड़ेगा।" मृत्यु के देवता यम कुछ हंसकर बोले, "तुम बहुत हठी हो। तुम्हारा तर्क सुनकर मुझको हंसी आती है। तुम्हारी कोई इच्छा है? सत्यवान के जीवन को छोड़कर कुछ भी मांगो। मैं दूंगा।" सावित्री सोचने लगी। सोचकर उसने कहा, "अच्छी बात है। आप तो जानते हैं कि मेरे ससुर को धोखा देकर उनकी गद्दी छीन ली गयी थी। मैं सोचती हूं कि इस अन्याय का प्रतिकार होना चाहिए। मुझे आशा है कि आप मुझसे सहमत होंगे।' "तथास्तु,” यम ने कहा, और जल्दी-जल्दी चलने लगे। कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने मुड़कर देखा कि सावित्री अब भी उनके पीछे आ रही है। उसके तलुए कांटों और कंकड़ों से छिलकर लहूलुहान हो गये थे। 12

" मुस्कराकर उसने कहा, 'आप बहुत तेज चलते हैं।" यम ने उसकी ओर कठोर दृष्टि से देखकर पूछा, “तुम चाहती क्या हो, सावित्री। यदि तुम अपने पति का जीवन चाहती हो तो तुरंत इसका विचार छोड़ दो क्योंकि यह संभव नहीं है। यम न तो अपना वचन तोड़ता है और न किसी का जीवन लौटाता है। समझी?" "ओह, यह बात है?" सावित्री ने बड़ी सोच में सिर हिला कर कहा। "बड़ी दिलचस्प बात है। लेकिन तब तो आपको पक्का विश्वास होगा कि आप जो कुछ करते हैं, ठीक करते हैं। है न?" "इसमें ठीक और गलत का कोई प्रश्न नहीं।" 'अच्छा,' सावित्री ने आश्चर्य से कहा, "कितनी अजीब बात है। बचपन से ही कूट-कूट कर मेरे दिमाग में यह बात भरी गयी है कि हमेशा वही काम करना चाहिए जो ठीक हो। गलत काम नहीं करना चाहिए। लेकिन शायद ठीक या गलत यह सब केवल हम' मनुष्यों के लिए है, देवताओं के लिए नहीं।" "लेकिन मृत्यु की बात अलग है।" "कैसे? मुझको तो यही ठीक लगता है कि जो बात जीवन पर लागू है वही मृत्यु पर भी लागू होनी चाहिए।" "तुम हर बात को इस तरह तोड़-मरोड़ देती हो कि वह तर्कपूर्ण लगने लगती है।" 'क्षमा चाहती हूं," सावित्री ने बड़े विनय से कहा। “मैं अपनी बात को दूसरी तरह कहूंगी। यदि सारा जीवन हम ठीक काम करने का प्रयत्न करते रहते हैं तो यह उचित ही है कि... " "ठहरो," यम ने कहा। यदि मैं तुम्हें एक वरदान और दूं तो मेरा पीछा करना छोड़ दोगी?' सावित्री ने बड़े हर्ष से ताली बजाकर कहा, “तो क्या आप मुझको एक और 13

" वरदान देंगे? कितने उदार और दयावान हैं आप!" "लेकिन याद रखना। सत्यवान का जीवन मत मांगना।" "नहीं, नहीं," सावित्री ने कहा। “जरा सोचने दीजिए। मैं अपने पहले वरदान में ही कुछ और मांगना चाहती थी।" भौंहें सिकोड़ कर वह कुछ सोचने लगी। फिर जैसे अचानक बात याद आ गयी हो, उसके कहा, "हां, अपने ससुर के लिए कुछ मांगना चाहती थी जिनका राजपाट आपने कृपा कर के वापस दिलवा दिया। वह अंधे हैं। एक अंधा आदमी राजपाट लेकर क्या करेगा? और प्रजा के लिए अंधा राजा किस काम का भला?" यम ने मुस्कराकर कहा, "तुम्हारे ससुर की आंखें बिल्कुल ठीक हो जायेंगी।' यह कहकर वह चलने लगे तो सावित्री ने फिर कहा, "मुझे बड़ी खुशी है कि मुझे अपने ससुर की याद हो आयी। अगर मुझे उनकी आंखों की बात याद न आ जाती तो जानते हैं उत्तेजना में मैं क्या मांग बैठती?" "क्या?" "अपने पिता और अपने ससुर के राज्यों के लिए वैभव और सुख । बात यह है कि अब दोनों राज्यों की उत्तराधिकारी मैं ही हूं। अब सोचती हूं कि अच्छा ही हुआ कि मैंने आपसे यह वरदान नहीं मांगा। इन राज्यों को भला वैभव और सुख क्यों दिया जाए? यह तो राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा को समृद्ध और सुखी बनाये। है न?" "हां।" "राजा की जिम्मेदारियां बहुत बड़ी हैं", सावित्री ने गंभीरता से सिर हिलाते हुए कहा। “महल में रहना, दरबार लगाना, कवियों और गायकों को सम्मानित करना, और कर वसूल करने के लिए कर्मचारियों को राज्य-भर में भेजना, इतना ही थोड़ा होता है राजा का काम? राजा को यह भी देखना होता है कि कानून का पालन उचित ढंग से हो, और उसके कर्मचारी प्रजा को न सताएं। उसको पड़ोसियों के साथ शांति बनाये रखनी चाहिए, और यह देखना चाहिए कि उसके राज्य में कोई ऐसा तो नहीं है जिसके पास भोजन, कपड़ा या रहने की जगह नहीं है। इसमें भी जरूरी यह है कि लोगों को बोलने की आजादी हो, और वे राज्य-व्यवस्था की आलोचना निर्भय होकर कर सकें जिससे कि राजा स्वेच्छाचारी न बन जाये।" इस बुद्धिमती राजकुमारी की बातें सुनकर यम मन ही मन उसकी प्रशंसा करते हुए बोले, “बिल्कुल ठीक कह रही हो तुम। न्याय और स्वाधीनता की परंपरा पुस्तकों में लिखे कानूनों से कहीं ज्यादा बड़ी है।" सावित्री ने कहा, “और इसके लिए यह आवश्यक है कि राजाओं के वंश बिना किसी विघ्न-बाधा के चलते जायें, उत्तराधिकार का सिलसिला कहीं न टूटे। है न?" 'अवश्य,” यम ने कहा। “अगर उत्तराधिकार के सिलसिले में गड़बड़ी हुई तो अराजकता फैलेगी, संबंधियों में आपस में युद्ध होगा।" सावित्री ने अचानक मौन साध लिया। उसके चेहरे पर निराशा और उदासी छा गयी, उसके कंधे झुक गये और उसकी सुंदर आंखों से आंसू टपक पड़े। । यम ने आश्चर्य से पूछा, “क्या हुआ, सावित्री?" 'आप इतने बुद्धिमान हैं, सर्वज्ञ हैं," सावित्री ने ठंडी सांस भर कर कहा। "मुझे विश्वास है कि आपने मेरे मन की बात समझ ली होगी।" यम भौहें सिकोड़कर सोचने लगे। सावित्री क्या सोच रही है यह समझने की कोशिश करना वैसा ही था जैसे तूफान में हवा की दिशा का अनुमान लगाना। सावित्री ने धीरे से कहा, "मैं सोच रही थी कि मेरे बाद इन दोनों राज्यों का कोई शासक नहीं होगा। मेरे पिता और मेरे ससुर के वंशों का क्या होगा? मेरी मृत्यु के बाद कितनी अराजकता फैलेगी, संबंधियों में युद्ध होंगे यही शब्द थे न आपके? सड़कों पर रक्त की नदियां बहेंगी, नगर उजाड़ हो जायेंगे, फसलों को 

HAA काटनेवाला कोई न होगा, घर-घर से स्त्रियों और बच्चों का रोना सुनायी देगा...।' " "ठहरो," यम ने उसको रोक कर कहा। “ऐसा नहीं होने पायेगा। मैं तुमको वरदान देता हूं। तुम्हारे सौ पुत्र होंगे और वे दोनों वंशों को चलायेंगे।" जैसे ही यम के मुख से यह शब्द निकले, सावित्री का सारा रूप ही मानों बदल गया। उसका चेहरा खुशी से चमकने लगा, झुके कंधे तन गये, ठंडी सांसें और आंसू मानों जादू से गायब हो गये। रानियों की-सी शान से सुंदर राजकुमारी यम के सामने सिर उठाये खड़ी थी। उसने कहा, “मुझे दुख है कि मेरे कारण आपको अपनी परंपरा तोड़नी पड़ेगी।" "कौन-सी परंपरा?" यम ने सतर्क होकर पूछा। "यही कि यम कभी किसी का जीवन नहीं लौटाते। आपने मुझको सौ पुत्रों का वरदान दिया है न? यदि आप मेरे पति को ले गये तो मेरे पुत्र कैसे होंग? यम ने हार स्वीकार की। जब दोनों जल्दी-जल्दी जंगल में वापस जा रहे थे तो 

 यम ने कहा, “नारद ने मुझसे कहा था कि मैं सत्यवान को लेने स्वयं जाऊं। तभी मुझे समझ जाना चाहिए था कि इसमें नारद की कोई चाल है!" कहने की आवश्यकता नहीं कि यमराज ने जो-जो वरदान सावित्री को दिए थे, सब पूरे हुए। सत्यवान आंखें मलता हुआ उठ बैठा मानों लंबी नींद से जगा हो। उसने सावित्री को बताया कि उसने एक विचित्र सपना देखा कि वह किसी काले अजनबी के साथ किसी लंबी यात्रा पर जा रहा है। सत्यवान के पिता को आंखें भी मिल गयीं और खोया हुआ राजपाट भी। सावित्री को हीर और लाल का कीमती हार भी मिला। भाग्य ने पलटा खाया। चारों तरफ खुशियां मनायी जाने लगीं। खाने-पीने, नाच-गाने की धूम मच गयी। जब धूम-धड़ाका खत्म हुआ और उत्साह ठंडा पड़ा तो एक दिन अश्वपति ने सावित्री को अलग बुलाकर पूछा, “मुझे समझ नहीं आता बेटी, कि यमराज से टक्कर लेने का साहस कैसे हुआ तुमको?" सावित्री ने मुस्कराकर कहा, “पिताजी, सत्यवान की माताजी से जब मैं मिली तो उन्होंने मुझे उनकी जन्मपत्री और पंडितों की भविष्यवाणी के बारे में बताया। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उनमें जो सबसे विद्वान पंडित थे उन्होंने बताया था कि मृत्यु से अधिक शक्तिशाली वस्तु सत्यवान की मृत्यु को टाल सकेगी। इसी से मुझे आशा बंधी और साहस हुआ। मेरे पास मृत्यु से अधिक शक्तिशाली चीज थी पिताजी मेरा प्रेम। 

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