श्रीपराशरजी बोले - 
चन्द्रमाका रथ तीन पहिंयोवाला है, उसके वाम दक्षिण ओर कुन्दकुसुमके समान श्वेतगर्ण दस घोडे़ जुते हुए हैं । ध्रुवके आधारपर स्थित उस वेगशाली रथसे चन्द्रदेव भ्रमण करते है और नागवीथिपर आश्रित अश्विनी आदि नक्षत्रोंका भोग करते हैं । सूर्यके समान इनकी किरणोंके भी घटनेबढ़का निश्चित क्रम हैं ॥१-२॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यके समान समुद्रगर्भसे उप्तन्न हुए उसके हुए उसके घोड़े भी एक बार जोत दिये जानेपर एक कल्पपर्यन्त रथ खींचते रहते हैं ॥३॥
हे मैत्रेय ! सुरगणके पान करते रहनेसे क्षीण हुए कलामात्र चन्द्रमाका प्रकाशमय सूर्यदेव अपनी एक किरणसे पुनः पोषण करते हैं ॥४॥
जिस क्रमसे देवगण चन्द्रमाका पान करते हैं उसी क्रमसे जलापहारी सूर्यदेव उन्हें शुक्ला प्रतिपदासे प्रतिदिन पुष्ट करते हैं ॥५॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार आधे महीनेमें एकत्रित हुए चन्द्रमाके अमृतको देवगण फिर पीने लगते हैं क्योंकी देवताओंका आहार तो अमृत ही हैं ॥६॥
तैंतीस हजार, तीन सौ, तैंतीस ( ३३३३३ ) देवगण चन्द्रस्थ अमृतका पान करते हैं ॥७॥
जिस समय दो कालामात्र रहा हुआ चन्द्रमा सूर्यमण्डलमें प्रवेश करके उसकी अमा नामक किरणमें रहता है वह तिथि अमावास्या कहलाती हैं ॥८॥
उस दिन रात्रिमें वह पहले तो जलमें प्रवेश करता है, फिर वृक्ष-लता आदिमें निवास करता है और तदनन्तर क्रमसे सूर्यमें चला जाता हैं ॥९॥
वृक्ष और लता आदिमें चन्द्रमाकी स्थितिके समय ( अमावास्याको ) जो उन्हें काटता है अथवा उनका एक पत्ता भी तोड़ता है उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है ॥१०॥
केवल पन्द्रहवीं कलारूप यत्कित्र्चित् भागके बच रहनेपर उस क्षीण चन्द्रमाको पितृगण मध्याह्नोत्तर कालमें चारों ओरसे घेर लेते हैं ॥११॥
हे मुने ! उस समय उस द्विकलाकार चन्द्रमाकी बचा हुई अमृतमयी एक कलका वे पितृगण पान करते हैं ॥१२॥
अमावास्याके दिन चन्द्र-रश्मिसे निकले हुए उस सुधामृतका पान करके अत्यन्त तृप्त हुए सौम्य, बर्हिषद् और अग्निष्वत्ता तीन प्रकारके पितृगण एक मासपर्यन्त सन्तुष्ट रहते हैं ॥१३॥
इस प्रकार चन्द्रदेव शुक्लपक्षसे देवताओंकी और कृष्णपक्षमें पितृगणकी पृष्टि करते हैं तथा अमृतमय शीतल जलकणोंसे लतावृक्षादिका और लता-ओषाधि आदि उप्तन्न करके तथा अपनी चन्द्रिकाद्वारा आह्णादित करके वे मनुष्य, पशु, एवं, कीट-पतंगादि सभी प्राणियोंका पोषण करते हैं ॥१४-१५॥
चन्द्रमाके पुत्र बुधका रथ वायु और अग्निमय द्रव्यका बना हुआ है और उसमें वायुके समान वेगशाली आठ पिशंगवर्ण घोडे़ जुते हैं ॥१६॥
वरुथ+ , अनुकर्ष+ उपासंग+++ और पताका तथा पृथिवीसे उप्तन्न हुए घोड़ोके सहित शुक्रका रथ भी अति महान् है ॥१७॥
तथा मंगलका अति शोभायमान सुवर्ण-निर्मित महान् रथ भी अग्निसे उप्तन्न हुए, पद्मराग-मणिके समान, अरुणवर्ण, आठ घोड़ेसे युक्त है ॥१८॥
जो आठ पाण्डुरवर्ण घोड़ोसे युक्त सुवर्णका रथ हैं उसमें वर्षके अन्तमें प्रत्येक राशिमें बृहस्पतिजी विराजमान होते हैं ॥१९॥
आकाशसे उत्पन्न हुए विचित्रवर्ण घोड़ोसे युक्त रथमें आरुढ़ होकर मन्दगामी शनैश्वरजी धीर-धीरे चलते हैं ॥२०॥
राहुका रथ धूसर ( मटियाले ) वर्णका है, उसमें भ्रमरके समान कृष्णवर्ण आठ घोड़े जुते हुए हैं । हे मैत्रेय ! एक बार जोत दिये जानेपर व घोड़े निरन्तर चलते रहते हैं ॥२१॥
चन्द्रपर्वो ( पूर्णिमा ) पर यह राहु सूर्यसे निकलकर चन्द्रमाके पास आता है तथा सौरपर्वो ( अमावस्या ) पर यह चन्द्रमासे निकलकर सूर्यके निकट जाता है ॥२२॥
इसी प्रकार केतुके रथके वायुवेगशाली आठ घोड़े भी पुआलके धुएँकी-सी आबहवाले तथा लाखके समान लाल रंगके हैं ॥२३॥
हे महाभाग ! मैंने तुमसे यह नवों ग्रहोंके रथोंका वर्णन किया; ये सभी वायुमयी डोरीसे ध्रुवके साथ बँधे हुए हैं ॥२४॥
हे मैत्रेय ! समस्त ग्रह, नक्षत्र और तारामण्डल वायुमयी रज्जुसे ध्रुवके साथ बँधे हुए यथोचित प्रकारसे घूमते रहते हैं ॥२५॥
जितने तारागण हैं उतनी ही वायुमयीं डोरियाँ है । उनसे बँधकर वे सब स्वयं घूमते तथा ध्रुवको घुमाते रहते हैं ॥२६॥
जिस प्रकर तेली लोग स्वयं घूमते हुए कोल्हूको भी घुमाते रहते हैं उसी प्रकार समस्त ग्रहगण वायुसे बँध कर घूमते रहते हैं ॥२७॥
क्योंकी इस वायुचक्रसे प्रेरित होकर समस्त ग्रहगण अलातचक्र ( बनैती ) के समान घुमा करते हैं, इसलिये यह 'प्रवह' कहलाता है ॥२८॥
जिस शिशुमारचक्रका पहले वर्णन कर चुके हैं , तथा जहाँ ध्रुव स्थित हैं, हे मुनिश्रेष्ठ ! अब तुम उसकी स्थितिका वर्णन सुनो ॥२९॥
रात्रिके समय उनका दर्शन करनेसे मनुष्य दिनमें जो कुछ पापकर्म करता है उनसे मुक्त हो जाता हैं तथा आकाशमण्डलमें जितने तारे इसके आश्रित हैं उतने ही अधिक वर्ष वह जीवित रहता हैं ॥३०॥
उत्तानपाद उसकी ऊपरकी हनु ( ठोडी़ ) है और यज्ञ नीचेकी तथा धर्मने उसके मस्तकपर अधिकार कर रखा है ॥३१॥
उसके हृदय-देशमें नारायण हैं, दोनों चरणोंमें अश्विनीकुमार हैं तथा जंघाओंमें वरुण और अर्यमा हैं ॥३२॥
संवत्सर उसका शिश्न है, मित्रने उसके अपान-देशको आश्रित कर रखा हैं, तथा अग्नि, महेन्द्र, कश्यप और ध्रुव पुच्छभागमें स्थित हैं । शिशुमारके पुच्छभागमें स्थित ये अग्नि आदि चार तारे कभी अस्त नहीं होते ॥३३-३४॥
इस प्रकार मैंने तिमसे पृथिवी, ग्रहगण, द्वीप, समुद्र, पर्वत, वर्ष और नदियोंका तथा जो-जो उनमें बसते हैं उन सभीके स्वरूपका वर्णन कर दिया । अब इसे संक्षेपसे फिर सुनो ॥३५-३६॥
हे विप्र ! भगवान् विष्णुका जो मूर्तरूप जल है उससे पर्वत और समुद्रादिके सहित कमलके समान आकरवाली पृथिवी उप्तन्न हुई ॥३७॥
हे विप्रवर्य ! तारागण, त्रिभुवन, वन पर्वत, दिशाएँ, नदियाँ और समुद्र सभी भगवान् विष्णु ही हैं तथा और भी जो कुछ है अथवा नहीं है वह सब भी एकमात्र वे ही हैं ॥३८॥
क्योंकि भगवान् विष्णु ज्ञानस्वरूप हैं इसलिये वे सर्वमय हैं, परिच्छिन्न पदार्थाकार नहीं हैं । अतः इस पर्वतः समुद्र और पृथिवी आदि भेदोंको तुम एकमात्र विज्ञानका ही विलास जानो ॥३९॥
जिस समय जीव आत्मज्ञानके द्वारा दोषरहित होकर सम्पूर्ण कर्मोका क्षय ह जानेसे अपने शुद्ध-स्वरूपमें स्थित हो जाता हैं उस समय आत्मवस्तुमें संकल्पवृक्षके फलरूप पदार्थ-भेदोंकी प्रतीति नहीं होती ॥४०॥
हे द्विज ! कोई भी घटादि वस्तु हैं ही कहाँ ? आदि, मध्य और अन्तसे रहित नित्य एकरूप चित् ही तो सर्वत्र व्याप्त है । जो वस्तु पुनः पुनः बदलती रहती रहती है, पूर्ववत् नहीं रहती, उसमें वास्तविकता ही क्या है ? ॥४१॥
देखो, मृत्तिका ही घटरूप हो जाती है और फिर वही घटसे कपाल, कपालसे चर्णरज और रजसे अणुरूप हो जाती है । तो फिर बताओ अपने कर्मोंके वशीभूत हुए मनुष्य आत्मस्वरूपको भूलकर इसमें कौन-सी सत्य वस्तु देखते हैं ॥४२॥
अतः हे द्विज ! विज्ञानसे अतिरिक्त कभी कहीं कोई पदार्थादि नहीं हैं । अपने-अपने कर्मोकि भेदसें भिन्न-भिन्न चित्तोंद्वारा एक ही विज्ञान नाना प्रकारसे मान लिया गया हैं ॥४३॥
वह विज्ञान अति विशुद्ध, निर्मल, निःशोक और लोभादि समस्त दोषोंसे रहित है । वही एक सत्स्वरूप परम परमेश्वर वासुदेव है, जिससे पृथक् और कोई पदार्थ नहीं हैं ॥४४॥
इस प्रकार मैंने तुमसे यह परमार्थका वर्णन किया है, केवल एक ज्ञान ही सत्य है, उसे भिन्न और सब असत्य है । इसके अतिरिक्त जो केवल व्यवहारमात्र है उस त्रिभुवनके विषयमें भी मैं तुमसे कह चुका ॥४५॥
( इस ज्ञान - मार्गके अतिरिक्त ) मैंने कर्म-मार्ग-सम्बन्धी यज्ञ, पशु, वह्नि, समस्त ऋत्विक्, सोम, सुरगण तथा स्वर्गमय कामना आदिका भी दिग्दर्शनकरा दिया । भूर्लोकादिके सम्पूर्ण भोग इन कर्म-कलापोंके ही फल हैं ॥४६॥
यह जो मैंने तुमसे त्रिभुवनगत लोकोंका वर्णन किया है इन्हीमें जीव कर्मवश घुमा करता है ऐसा जानकर इससे विरक्त हो मनुष्यको वही करना चाहिये जिससे ध्रुव, अचल एवं सदा एकरूप भगवान् वासुदेवमें लीन हो जाय ॥४७॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥
+ रथकी रक्षाके लिये बना हुआ लोहेका आवरण । 
++ रथका नीचेका भाग।
+++ शस्त्र रखनेका स्थान ।
 

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