यानशयनभेद
यान एवं शयन के भेद - अब मै (मय) यानो (वाहनो) एवं शयनो के लक्षण को क्रमशः कहता हूँ । शिबिका (पालकी) एवं रथ यान है तथा पर्यङ्क (पलंग) आदि शयन है । शयन के अन्तर्गत उन्ही से उत्पन्न (उन्ही की शैली मे निर्मित) पीठ आदि आसन आते है ॥१॥
शिबिकाभेद
शिबिका के भेद - मेरे (मय के) अनुसार पीठा, शिखरा और मौण्डी - ये तीन प्रकार की शिबिकायें होती है । इनकी लम्बाई एवं चौड़ाई समान होती है । इनमे भेद भित्ति (पार्श्व का किनारा), शिखर (छाजन) या अपने तीन स्तर के निर्माण के कारण होता है । अब मै (मय) उनकी चौड़ाई, लम्बाई एवं ऊँचाई का अलग-अलग वर्णन करता हूँ ॥२-३॥
पीठ
इसका विस्तार तीन बित्ता एवं लम्बाई पाँच बित्ता होनी चाहिये । अधम (छोटा) पीठा का माप तीन बित्ता एवं मध्यम का माप उससे एक अंगुल अधिक होता है । उत्तम (सबसे बडा) उससे तीन अंगुल अधिक होता है - ऐसा मुनियो द्वारा कहा गया है । इसकी लम्बाई चौड़ाई से डेढ गुनी या दुगुनी होती है ॥४-५॥
श्रेष्ठ (सबसे बडे) पीठा की भित्ति की ऊँचाई चौड़ाई की आधी होती है । मध्यम पीठा की ऊँचाई उससे तीन अंगुल कम एवं अधम पीठा की ऊँचाई उससे (मध्यम से ) तीन अंगुल कम होती है । इस प्रकार पीठा की ऊँचाई तीन प्रकार की होती है । चौड़ाई, लम्बाई एवं ऊँचाई के अनुसर पौण्डिका संज्ञक शिबिका तीन प्रकार की कही गई है । इनकी चौड़ाइ इकतीस, पैंतीस एवं सैतीस अंगुल कही गई है । इनकी लम्बाई एवं ऊँचाई पूर्ववर्णित रीति से करनी चाहिये ॥६-७॥
उत्तम, मध्यम एवं अधम प्रकार के ईषिका (चौखट, फ्रेम) की चौड़ाई पाँच, उसके आधी या दो अंगुल होनी चहैये । उसकी ऊँचाई चौड़ाई की आधी एवं लम्बाई उचित (आवश्यकतानुसार) होनी चाहिये । (अथवा) इसकी चौड़ाई पाँच, चार या तीन अंगुल एवं मोटाई डेढ अंगुल होनी चाहिये । यह क्षुद्रपट्टिका, वाजन, निम्न एवं अब्जक (सभी अलंकरणो) से युक्त होती है ॥८-९॥
हस्त (काष्ठनिर्मित पार्श्वभित्ति का ऊपरी भाग) की चौड़ाई ढाई, दो या डेढ अंगुल चौडी तथा मोटाई तीन चौथाई या चौडाई की आधा होती है । इसकी आकृति आधी गोलाई लिये, छत्र के समान या वेत्र (वेत) के समान होती है ॥१०-११॥
हस्त एवं ईषिका के मध्य छः भाग करना चाहिये एवं वहाँ चार चम्पक (रचना-विशेष) निर्मित करना चाहिये । इनका विस्तार ढ़ाई, दो या डेढ़ अंगुल होना चाहिये । कम्पकों के ऊपर एवं नीचे एक अंगुल मोटा फलक होता है एवं इनकी ऊँचाई (हस्त एवं ईषिका के मध्य) छठे भाग के बराबर होती है । मध्य कम्प को छोड़कर (फलक की ऊँचाई) आवश्यकतानुसार रखनी चाहिये । मध्य भित्ति पर मध्य भाग के दो भाग मे नर, नारी, चक्रवाक, लता, चार पैर वाले पशु, नाटक आदि के दृश्यों से अलंकरण होने चाहिये । हस्त एवं अधिक (सम्भवतः ईषिका) के मध्य मे अग्रभाग मे व्यालस्थान होता है । निर्गमन के साथ मुष्टिबन्ध-माप चौड़ाई का दुगुना होता है (इन्हे हस्त एवं ईषिका के मध्य में स्थापित किया जाता है) । उसके नीचे अंघ्रि (स्तम्भ, पाद) होता है, जिसकी ऊँचाई अधोभाग (व्याल के नीचे भाग) के बराबर होती है । उससे सम्बद्ध निर्गम उसके बराबर माप का या चौड़ाई के आधे माप का होता है एवं नक्रमुख (मकराकृति) से सुसज्जित होते है । स्तम्भ का व्यास पाँच, सात या नौ भाग चौड़ा तथा नौ, दस या ग्यारह भाग लम्बा होता है । इन पादों की चौड़ाई एवं मोटाई कम्प की चौड़ाई एवं मोटाई के अनुरूप होती है ॥१२-१८॥
बड़े काष्ठखण्ड (चौखट, फ्रेम) के अग्र भाग एवं मूल भाग (ऊपरी एवं निचले सिरे) पर दृढ एवं आवश्यकतानुसार शिखा (खूँटी जैसी आकृति) निर्मित करनी चाहिये, जिससे कि वह काष्ठ (फ्रेम के दूसरे फलक में) सरलता से स्थापित किया जा सके (दूसरे फलक मे शिखा के अनुसार गड्ढा निर्मित होता है, जिसमे शिखा दृढ़ता से स्थापित की जाती है) इसमें पाँच या चार अंगुल का निर्गम होता है, जिस पर पद्म, पद्म का अग्रहस्त एवं कोने पर उसी के माप का कमल या चौकोर आकृति निर्मित होती है ॥१९-२०॥
छोटे-छोटे खण्डो के ऊपर विस्तृत कम्प या फलक होना चाहिये, जिसकी ऊँचाई एक भाग के बराबर होनी चाहिये । यह शोभा के लिये या आवश्यकतानुसार होता है । वही छोटे-छोटे स्तम्भ एवं गुलिकाये (गोलियाँ) शोभार्थ निर्मित होती है । अथवा सामने पाँच या तीन भाग के बराबर द्वार होना चाहिये, जिसका विस्तार तीन या चार अंगुल एवं ऊँचाई सात या आठ अंगुल होनी चाहिये । स्तम्भ, कुम्भ, अवलग्न (स्कन्ध) तथा हीरक (आकृतिविशेष) से युक्त और सुन्दर गोल होना चाहिये । बुद्धिमन व्यक्ति को द्वार के गुल्फ को दृढ़तापूर्वक कील से जड़ देना चाहिये । इस प्रकार विभिन्न प्रकार से अलंकृत शिबिका को 'पैठिका' कहा गया है ॥२१-२४॥
शिबिकाओं के अन्य प्रकार - (शेखरी) शिबिका की ऊँचाई उसकी चौड़ाई के बराबर एवं भित्ति चौड़ाई की आधी या तीन भाग के बराबर होती है । स्तम्भों से युक्त एवं शिखर से युक्त शिबिका को 'शेखरी' कहा गया है । 'मौण्डी' शिबिका मुण्ड के आकार की होती है एवं भित्तियाँ 'शेखरी' के समान होती है । इसकी चौड़ाई के समान ऊँचाई होती है । यह मण्डप के समान होता है एवं कहा जाता है ॥२५-२६॥
इन शिबिकाओं का प्रमाण स्तम्भ के मध्य से लिया जाता है । यान एवं शयन के निर्माण के लिये प्राचीन मनीषियों के अनुसार प्रशस्त वृक्ष शाक (सागौन), काल, तिमिश, पनस (कटहल), निम्ब, अर्जुन एवं मधूक (महुआ) के होते है । श्रीयुक्त मनुष्य जब यान पर सवार होता है तब उसकी प्रसन्नता अभिव्यक्त होती है । इस प्रकार के लक्षणों से युक्त शिबिका उस व्यक्ति को सफलता एवं समृद्धि प्रदान करती है ॥२७-२८॥
शिबिका-निर्माण का अध्याय समाप्त हुआ
रथः
रथ - रथ का विस्तार दोनो चक्रों के बाहरी भाग से ग्रहण किया जाता है । यह छः, सात या आठ बित्ता होता है । यह माप चक्रों की दोनों नाभियों के अन्तिम भाग से या अक्ष (धुरी) के ऊपर रक्खे उत्तर (पट्टी) की लम्बाई से अथवा रथ के बाह्य भाग की चौड़ाई के अनुसार रक्खी जाती है । इसकी लम्बाई चौड़ाई से डेढ़ गुनी अधिक होती है ॥२९॥
रथ में पाँच भार (लम्बी पट्टियाँ) होती है, जिनकी मोटाई एवं ऊँचाई चार, तीन या दो अंगुल होती है । अथवा उनकी संख्या तीन, सात या नौ होती है तथा उनका विस्तार एवं ऊँचाई पूर्ववर्णित रक्खा जाता है । उन्हे लम्बाई के अनुसार रक्खा जाता है एवं उपयुक्त तिर्यक्‌ कम्पो से दृढ़ किया जाता है ॥३०-३१॥
मध्य भार के ऊपर तुला होती है । इसके जोड़ से प्रारम्भ कर कूपर (रथ का दण्ड) होता है । इस कूपर का माप रथ के सामने के भाग से लिया जाता है, जिसका माप तीन हाथ से प्रारम्भ होता है एवं उसका अग्र भाग (छोर) मुड़ा होता है । इस कूपर को मध्यभार कहा जाता है । यह युग (जुआ) को सहारा प्रदान करता है । इसके ऊपर एक अंगुल मोटा फलक प्रस्तर (पट्टी) होता है ॥३२-३३॥
अक्ष, अक्षोत्तर, चक्रपट्ट एवं भारोपधानक (का वर्णन किया जा रहा है) । भारोपधानक (लम्बी पट्टी का सहारा) की ऊँचाई पाँच, छः या सात अंगुल; मोटाई दे या तीन अंगुल एवं लम्बाई अट्ठारह अंगुल होती है । ये पार्श्व में लगे होते है । इनकी आकृति पोतिका के समान होती है एवं लोहे की पट्टी से ये दृढ़तापूर्वक जड़ी होती है ॥३४-३५॥
अक्ष के ऊपर उत्तर (क्रास बीम) के मध्य में एक छिद्र होता है, जिसकी चौड़ाई एवं गहराई बराबर होती है । इसे अक्ष की रक्षा के लिये निचले भाग में दोनो पार्श्वो से दृढतापूर्वक कसा जाता है । इसकी मोटाई चौड़ई की आधी होती है, जो कि उपधान के बराबर होती है । इसकी लम्बाई अक्ष के बराबर होती है । यदि यह (उत्तर) काष्ठनिर्मित हो तो चौकोर होता है एवं लोहे की पट्टी, कील एवं उसी काष्ठ की शिखा (नुकीली लकड़ी) द्वारा दृढ किया जाता है । अक्ष के ऊपरी भाग में उत्तर को काष्ठ के कील से दृढतापूर्वक कसा जाता है ॥३६-३८॥
चक्र का विस्तार अक्ष के उत्तर के बराबर कहा गया है । नाभि की ऊँचाई (घेरा) दस अंगुल एवं लम्बाई- चौड़ाई एक वितस्ति (बित्ता) होनी चाहिये । पट्ट एवं नाभि के बीच में बत्तीस, चौबीस या सोलह अथवा आवश्यकता के अनुसार संख्या में अरें (तिलियाँ) होती है । ये छोर पर तीन अंगुल चौड़ी होती है अथवा मूल भाग में सँकरी डेढ़ अंगुल माप की होती है । ये यव के आकार की एवं मूल तथा अग्र भाग (दोनो छोर) पर शिका (नोक) से युक्त होती है । जब पहिया रोहारोह (ऊपर-नीचे) होता है, उस समय अक्ष का मध्य भाग आँख के सदृश प्रतीत होता है ॥३९-४१॥
भार (लम्बी पट्टी) को लोहे के पट्ट, कील एवं पट्टबन्ध आदि से जो जहाँ उचित हो, कसना चाहिये । लोहपट्टी की लम्बाई उसकी चौड़ाई से दुगुनी होनी चाहिये । उपपीठ एवं गोपनीय भाग को यथास्थान स्थापित करना चाहिये ॥४२-४३॥
स्तम्भों की ऊँचाई चक्र के आधे भाग के बराबर होती है । यह आधे भाग में हस्त (हत्था, रेलिंग) को सहारा देता है । चूलिका (ऊर्ध्वभाग की संरचना) की ऊँचाई स्तम्भ की ऊँचाई की आधी होती है । पट्टिकाओं के मध्य भाग मे आगे, दोनो पार्श्वो में एवं तलभाग में गुलिकायें (गोली आकृतियाँ) होती है । पृष्ठ भाग पाँच अंगुल ऊँची मुखपट्टिका से घिरा होता है । कोने के स्तम्भों के मध्य भाग में उत्तर पर मुकुल (कमल-कलिका) अंकित होते है ॥४५॥
भार, भारोपधान, अक्ष, अक्षोत्तर, कूबर (कूपर) एवं कूबर के छोर को लोहपट्टो एवं कीलों से इस प्रकार जोड़ना चाहिये, जिससे कि वे सही स्थान पर ठीक से जुड़े । अक्ष एवं अक्षोत्तर के मध्य में लकड़ी की कील का प्रयोग करना चाहिये ॥४६-४७॥
रथ पर आरोहण सर्वराज पर अधिकार प्राप्त करने के समय (साम्राज्य का अधिपति बनने के समय), राज-युद्ध के समय, महोत्सव के समय, मंगलवेला में, देवपूजा तथा सोमयाग के समय तथा जिन कार्यो मे कहा गया हो, उस समय करना चाहिये ॥४८-४९॥
चक्र का माप (परिधि) वास (गर्भगृह, रथ में बैठने का स्थान) की चौड़ाई का दुगुना या तीन गुना होता है । अथवा इसका माप सात ताल एवं विस्तार तीन या चार अंगुल होना चाहिये । (रथ के) स्तम्भ के माप के अनुसार उत्तर आदि का निर्माण पुर्ववर्णित विधि से करना चाहिये । हार (फ्रेम, चौखट) के ऊपर अन्तराल में चौसठ छोटे स्तम्भ होते है और स्तम्भ से युक्त होते है । स्तम्भोम का उदय छः, साढ़े पाँच या पाँच ताल का होता है । यह एक, दो या तीन तलों से युक्त एवं एक या चार मुख (प्रवेश) से युक्त होता है । इसका आकार मण्डप के समान एवं शिरोभाग शाला के समान (सीधा) होता है ॥५०-५३॥
(अथवा) चक्र का माप तीन, चार, पाँच, छःया सात हाथ एवं मोटाई उसका चार, पाँच, छः सात या आठवाँ भाग होता है । अक्ष (धुरी), अक्षोत्तर (धुरी की पट्टी) तथा भारोपधान (लम्बी सहारा देने वाली बीम) की चौड़ाई एवं मोटाई आवश्यकतानुसार होनी चाहिये एवं काष्ठकीलों से दृढ किया जाना चाहिये । यह एक, दो या तीन तल से युक्त एवं प्रासाद (देवालय) के समान अलंकृत होना चाहिये ॥५४-५५॥
(अथवा) सोलह स्तम्भों से युक्त, सभी दिशाओं में मुखभद्र से युक्त, सभी प्रकार के अलंकरणो से युक्त रंग (रङ्गमञ्च की आकृति) को रथ में दृढ़तापूर्वक जोड़ना चाहिये । इस प्रकार विद्वानों के अनुसार शिल्प-विशेषज्ञ की इच्छानुसार रथ में (आकृति आदि का) संयोजन करना चाहिये ॥५६-५७॥
लेखित (चित्रण) में पादुक (प्लिन्थ), (दूसरा) जोड़े सहित पद्म, (तीसरा) मुर्तियों सहित स्तम्भ, (चौथा) तुर्यक आदि से युक्त पट्टी, पाँचवाँ बोधि एवं छठवा कमलकलिका होती है ॥५८॥
दो, तीन, चार, एक एवं नौ वर्गों से विप्रभाग की गणना की जाती है । पद्म, सहकर्ण के साथ पट्टी एवं व्याल तथा नक्र से सुशोभित प्रस्तर का निर्माण होना चाहिये । दो भाग से पद्म, जगती, प्रवेश का आधार एवं कुमुद एक-एक भाग से निर्मित होना चाहिये ॥५९-६०॥
यदि सोलह भाग हो तो तीन भाग से पट्टी, एक भाग से वेदी, एक भाग से धरातल (आधार), पाँच भाग से पद्म, दो भाग से वेदिका, एक भाग से वेदी, एक भाग से गल, एक भाग से प्रस्तर एवं (शेष से) मुनि, देव, नाट्य दृश्य एवं उपधान आदि निर्मित होने चाहिये ॥६१॥
 

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