जीर्णोद्धार- विधान - 
अब मै (मय) हर्म्यो (मन्दिरो), लिङ्गो, पीठो, प्रतिमाओं एवं अन्य वास्तु-निर्माणों के अन्य लक्षणों से अनुकर्मविधि का संक्षेप में उनके क्रम से भली-भाँति वर्णन करता हूँ ॥१॥
भवनजीर्णोद्धार
भवन का जीर्णोद्धार - भवन (देवालय) टूट सकता है, गिर सकता है, टेढ़ा हो सकता है, पुराना हो सकता है या जीर्ण हो सकता है । अथवा इसकी जाति, छन्द, विकल्प या आभास संस्थान से भिन्न हो सकती है । अथवा इसकी जाति, छन्द, विकल्प या आभास संस्थान से भिन्न हो सकती है । जिन (देवालयों) का लक्षण स्पष्ट न हो, वहाँ स्थापित लिङ्ग के भेद के अनुसार (अनुकर्मविधान होना चाहिये) इसमें अन्य द्रव्य, अच्छे द्रव्य, नवीन घर, विस्तार एवं ऊँचाई आदि से उचित आय आदि का निर्धारण तथा अलंकरण आदि से (अनुकर्म होना चाहिये) ॥२-४॥
जिन देवालयों के प्रधान अंगो एवं उपांगो के लक्षण प्राप्त हो रहे हो, उनका (अनुकर्मविधान) उन्ही के द्रव्यों से करना चाहिये । यदि उनमें किसी तत्त्व की कमी हो या कोई और अभाव हो तो विद्वानों के अनुसार उसे पूर्ण करना चाहिये । इससे वे पूर्णता को प्राप्त करते है एवं सौम्य रीति से द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिये । यह सब ऊँचाई आदि के अनुसार होना चाहिये एवं उनको सौष्ठिक एवं कोष्ठ आदि अलंकारो से युक्त करना चाहिये । विना उसमें कुछ जोड़े उसके वास्तविक स्वरूप को बनाये रखना चाहिये ॥५-७॥
नागर देवालय में नागर देवालय (का अनुकर्म-विधान) कहा गया है । इसी प्रकार द्राविड देवालय में द्राविड एवं वेसर देवालय में वेसर प्रशस्त कहा गया है । अर्पित भवन में भी अर्पित (भवन का अनुकर्म-विधान) होना चाहिये । अर्पित से भिन्न भवन (देवालय) में अर्पित से भिन्न भवन (का अनुकर्म-विधान) होना चाहिये ॥८॥
विद्वान व्यक्ति को वास्तु (भवन) निर्माण में सभी योजनीय भागों को उचित रीति से प्रयत्नपूर्वक जोड़ना चाहिये । विमान को प्राकार से संयुक्त करना चाहिये । साल भवन के भीतर एवं बाहर प्राकार विकल्प से होता है (अर्थात् हो भी सकता है, नही भी हो सकता है) । देवालय में गतियों (चलने का मार्ग) का निर्माण नियमानुसार होना चाहिये, जिनका वर्णन मै (मय) यहाँ कर रहा हूँ । इनकी ऊँचाई मूल भवन के समान या उससे अधिक होनी चाहिये, अथवा इच्छानुसार स्वीकरणीय होता है । दिशाओं में जिनकी योजना की जाती है, उनकी ऊँचाई मूल भवन के समान होती है । दिक्कोणों में यह अधिक ऊँची होती है, किन्तु विमान के निष्क्रम को आठवे भाग या चौथे भाग से अधिक नही होना चाहिये । इसे आवश्यकतानुसार निर्मित करना चाहिये ॥९-११॥
साल की वृद्धि उत्तर दिशा, पूर्व दिशा या चारो ओर नियमानुसार करनी चाहिये । भवन के जीर्ण होने पर निर्माणकार्य उसी स्थान पर या अन्य स्थान पर करना चाहिये । वास्तुविद दिशाओं एवं दिक्कोणों में या उससे बाहर इसका निर्माण प्रशस्त नही मानते । इससे विपरीत करने पर विपत्ति आती है; अतः पूर्वोक्त क्रम से ही निर्माण करना चाहिये । नष्ट वास्तु को छोड़कर पुनः गर्भविधान (शिलान्यास) से भवननिर्माण करना चाहिये ॥१२-१४॥
लिङ्गजीर्णोद्धार
लिङ्ग का जीर्णोद्धार - संसार मेम विज्ञजन इन लिङ्गों को सदाशिव (सदा अशिव, अप्रशस्त) कहते है । ये है- गिरा हुआ लिङ्ग, फूटा हुआ, जिसके चारो ओर चलना कठिन हो, टेढा, अधोगत लिङ्ग, लिङ्ग से ऊर्ध्वगत लिङ्ग, किसी की कल्पना से निर्मित लिङ्ग, अज्ञानी द्वारा स्थापित लिङ्ग, टूटा हुआ लिङ्ग, जला हुआ लिङ्ग, जीर्ण लिङ्ग, टूटा-फूटा लिङ्ग, चारो द्वारा छोड हुआ लिङ्ग, दूषित स्थान का लिङ्ग, अशुद्ध व्यक्ति द्वारा छुआ गया लिङ्ग एवं विपरीत नियमो से युक्त लिङ्ग ॥१५-१७॥
यदि लिङ्ग गिर जाय तथा किसी अज्ञानी व्यक्ति द्वारा उसे स्थापित कर दिया जाय तो उसके स्थान पर दूसरा ऐसा लिङ्ग स्थापित करना चाहिये, जिसे सूर्य की किरणें भी न स्पर्श की हो । जो लिङ्ग अपवित्र वस्तुओं के मध्य में रक्खा हो, या जो पीठ के खात के निचले तल का स्पर्श करे, अथवा जो पीठिका के ऊपर न दिखाई पडे, उसे 'तुच्छ' लिङ्ग कहते है । जिस लिङ्ग की दिशा सही न हो, वह भी उसी प्रकार (तुच्छ ) होता है । विद्वान् व्यक्ति वक्र एवं वक्रवृत्तं लिङ्ग को माप के अनुसार ठीक कर सकता है ॥१८-२०॥
जो लिङ्ग ज्ञात काल तक भूमि में गड़ा हो, उसे अधोगत लिङ्ग कहते है । इसे बाहर निकाल कर इसका माप करना चाहिये । अज्ञात काल से गड़े लिङ्ग को ऊर्ध्वगत लिङ्ग कहते है । यदि इसमें कोई दोष न हो तो उसे पुनः उसी स्थान पर स्थापित करना चाहिये ॥२१-२२॥
यदि लिङ्ग नदी में गिर जाय तो उसे निकाल कर उसके पुराने स्थान से एक सौ दण्ड दूर दिव्य लिङ्ग की विधि से पवित्र स्थान पर पूर्वमुख विधिपूर्वक स्थापित करना चाहिये ॥२३॥
यदि कोई लिङ्ग सभी लक्षणों से युक्त हो; किन्तु मन्त्र एवं क्रिया से रहित एवं अज्ञानतापूर्वक स्थापित हो तो उसे विधिपूर्वक पुनः स्थापित करना चाहिये । हीन, जले हुये, जीर्ण, फूटे एवं टूटे हुये लिङ्ग को, चाहे उसकी पूजा हो रही हो । तो भी उसका त्याग कर नवीन लिङ्ग की पुनः स्थापना करते समय अज्ञानतावश ऊपर का भाग नीचे स्थापित हो जाय, या इसका मुख अन्य दिशा में हो, या अचानक विपरीत हो जाय तो उस लिङ्ग का तुरन्त परित्याग कर उसके स्थान पर नियमपूर्वक नवीन लिङ्ग की स्थापना करनी चाहिये ॥२४-२६॥
सभी लक्षणों से युक्त होने पर भी तल या अक्ष (अर्थात् उचित आकृति न होने पर) से रहित होने पर अथवा त्याज्य क्षेत्र में होने पर वह लिङ्ग स्थापना के योग्य नही होता है, अतः उसका पूर्ण रूप से त्याग करना चाहिये । उसके स्थान पर नवीन लिङ्ग की विधिपूर्वक स्थापना करनी चाहिये । यदि किसी लिङ्ग को चोर छोड़ गये हो एवं वह पञ्च-सन्धान के भीतर गिरा हो तथा वह लिङ्ग दोषरहित हो तो उसे वही पर विधिपूर्वक स्थापित करना चाहिये ॥२७-२८॥
चाण्डाल एवं शूद्र आदि द्वारा स्पर्श किया गया लिङ्ग (पूजा के लिये) अयोग्य कहा गया है । यदि नदी के तट पर स्पर्श किया गया हो एवं वह लिङ्ग मन्दिरविहीन हो तो उसे पूर्व दिशा या उत्तर दिशा में अन्यत्र पवित्र स्थान पर ले जाकर पूर्ववर्णित विधि द्वारा लाये गये लिङ्ग के समान सम्यक्‌ प्रकार से स्थापित करना चाहिये । यदि बेर (प्रतिमा) को भी परिस्थितिवश नये स्थान पर ले जाया एवं वह दोषहीन हो तो उसे स्थापित करना चाहिये । इस विषय में यदि कुछ न कहा गया हो तो जो कुछ लिङ्ग के लिये कहा गया है, उसी विधि को मानना चाहिये ॥२९-३१॥
कुछ विद्वानों के मतानुसार यदि लिङ्ग बारह वर्षों से अधिक समय तक शून्य (पूजा आदि से रहित, त्यक्त) रहा हो तो ऐसे लिङ्ग को दोषरहित होने पर भी ग्रहण नही करना चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को उसे शीघ्र ही नदी में प्रवाहित कर देना चाहिये ॥३२॥
पीठजीर्णोद्धार
पीठ का जीर्णोद्धार - शिला आदि द्वारा निर्मित पीठं यदि दोषरहित हो तभी उसका ग्रहण करना चाहिये । ब्रह्मशिला, अन्य द्रव्य एवं पिण्ड आदि का ग्रहण पहले के समान करना चाहिये ॥३३॥
विना लक्षण के, हीन (अपूर्ण), टूटे-फूटे पीठ का त्याग कर पूर्ववर्णित विधि से पीठ का निर्माण करना चाहिये । पाषाणनिर्मित पीठ के स्थान पर पाषाणनिर्मित तथा काष्ठमय पीठ के स्थान पर काष्ठमय पीठ निर्मित करना चाहिये । यदि पूर्व पीठ गिर जाय तो पहले के समान उचित रीति से निर्माण करना चाहिये । प्रस्तर के प्राप्त न होने पर या इष्टका-निर्मित पीठ होने पर पीठ को इष्टका से ही निर्मित करना चाहिये ॥३४-३६॥
बेरजीर्णोद्धार
बेर का जीर्णोद्धार - यदि प्रस्तरनिर्मित या काष्ठनिर्मित बेर (प्रतिमा) अपूर्ण हो तो उसका तुरन्त त्याग कर नवीन प्रतिमा की पूर्ववर्णित विधि से स्थापना करनी चाहिये । उचित माप से युक्त होने पर भी यदि बेर जीर्ण हो या टूट-फूट जाय तो उसका त्याग कर उसके स्थान पर नवीन बेरे स्थापित करना चाहिये ॥३७-३८॥
धातु-निर्मित या मृत्तिकानिर्मित बेर हाथ, नाक, पैर, आभूषण, कान एवं दाँत आदि से रहित हो तो उसे उसी द्रव्य (धातु में धातु एवं मृत्तिका में मृत्तिका) द्वारा (उन अंगो को) दृढ किया जाता है; किन्तु यदि प्रधान अंग से रहित हो तो उसे त्याग कर दूसरी नवीन प्रतिमा की स्थापना करनी चाहिये ॥३९॥
सामान्यविधि
सामान्य नियम - देवालय, लिङ्ग, पीठ या प्रतिमाओं में (जीर्णोद्धार करते समय) उन्ही द्रव्यों या उत्तम द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिये । हीन द्रव्यों का प्रयोग कभी नही करना चाहिये । (उपर्युक्त के) जीर्ण हो जाने पर जो विद्वान उसका निर्माण (जीर्णोद्धार) करना चाहता है, उसे उसी द्रव्य से पूर्ववर्णित रीते से विधिपूर्वक सम (ठीक) करना चाहिये । यदि उपर्युक्त हीन (कम या छोटे) हो तो उसे पूर्व-रूप के बराबर करना चाहिये । उससे अधिक करने पर शुभ की कामना करने वाले को सदा सर्वदा अभीष्ट की प्राप्ति होती है ॥४०-४२॥
हीन का निर्माण श्रेष्ठ द्रव्यों से करना चाहिये या पहले प्रयुक्त द्रव्य से करना चाहिये । इसका माप गर्भगृह, स्तम्भ एवं द्वार आदि के प्रमाण के अनुसार होना चाहिये । यदि प्रतिमा मृत्तिका-निर्मित हो तो उसे जल में प्रवाहित करना चाहिये । काष्ठ-निर्मित को अग्नि में प्रज्ज्वलित करना चाहिय । धातुनिर्मित को अग्नि में जलाने पर शुद्ध रूप (धातु) प्राप्त होता है ॥४३-४४॥
ग्रामादि का जीर्णोद्धार - ग्राम आदि का, गृह आदि का तथा शाला आदि का व्यास एवं लम्बाई (जीर्णोद्धार के समय) मूल से कम नही होना चाहिये । यह प्रशस्त नही होता, ऐसा श्रेष्ठ मुनियों का मत है । इसे उसके बराबर बनाये या उससे अधिक बनाना चाहिये । आवश्यकतानुसार इसे चारो ओर बढाना चाहिये अथवा पूर्ववर्णित दिशा में बढ़ाना चाहिये । दक्षिण या पश्चिम दिशा में बढ़ाने पर वस्तु (गृह) का विनाश होता है ॥४५-४६॥
गृह या मालिका में ऊपर के तल पूर्वसंख्या के अनुसार निर्मित करना चाहिये । उससे कम करना उचित नही होता है । इसक अनिर्माण पूर्ववर्णित क्रम से करना चाहिये ॥४७॥
बालस्थापन
बाल-स्थापन - निर्माण-कार्य के आरम्भ मे अथवा जीर्ण होने या टूटने पर, हीन अंगो (अपूर्ण) के निर्माण में, लिङ्ग अथवा बेर (प्रतिमा) के गिरने, फूटने, प्रधान अंग के हीन होने (टूटने या खोने) पर, पीठबन्ध के समय बाल-स्थापन (सामयिक स्थापना) करनी चाहिये ॥४८॥
प्रधान भवन के उत्तर में नौ स्तम्भो पर (बाल भवन) का स्थापन करना चाहिये । बाल-स्थापन का माप प्रधान भवन के तीसरे, चौथे, पाँचवे या छठे भाग के बराबर होता है । अथवा इसका माप तीन, चार, पाँच, छः या सात हाथ छोटे या बड़े (भवन के ) अनुसार होना चाहिये ॥४९॥
(बालभवन की) भित्ति की मोटई प्रधान भवन के भूतल के स्तम्भ की दुगुनी या तिगनी होती है । शेष गृह नीचे होते है । यह (बालभवन) सभा या मण्डप हो सकता है ॥५०॥
(लिङ्ग की ऊँचाई) गर्भगृह के चतुर्थांश से लेकर आधे तक हो सकती है । इन दोनो मापों के मध्य के अन्तर को आठ से भाग देने पर (लिङ्ग) के नौ ऊँचाई के माप प्राप्त होते है । लिङ्ग की परिधि उसकी ऊँचाई के बराबर होती है । यह अच्छी गोलाई से युक्त होता है एवं इसका शिरोभाग छत्र के समान एवं सूत्रहीन होता है ॥५१॥
तरुण लिङ्ग के नौ प्रमाण प्राप्त होते है । यह स्थापक के अंगुलि-प्रमाण से पन्द्रह अंगुल माप से प्रारम्भ होता है एवं एक-एक अंगुल प्रत्येक में बढ़ाया जाता है । इसे पीठ में इसकी लम्बाई के तीसरे या चौथे भाग के बराबर गहराई में स्थापित किया जाता है ॥५२॥
तरुण लिङ्ग की सबसे अधिक ऊँचाई प्रधान भवन के मूल भाग के बराबर होती है एवं सबसे कम ऊँचाई उसकी आधी होती है । इन दोनों के मध्य के अन्तर को आठ से भाग देने पर ऊँचाइयों के नौ भेद प्राप्त होते है ॥५३॥
तरुण प्रतिमा की ऊँचाई के नौ भेद प्राप्त होते है । इसे सात अंगुल से प्रारम्भ कर प्रत्येक (अगले चरण पर) दो अंगुल बढ़ाते जाना चाहिये । यह विधि सकल (अंगयुक्त) एवं सकल (अंगविहीन) दोनों (प्रकार के प्रतिमाओं, लिङ्गों) के लिये कही गई है ॥५४॥
जब कोई तरुण प्रतिमा पूजन के लिये निर्मित हो तो उसकी सबसे अधिक ऊँचाई मूल चल प्रतिमा की आधी तथा सबसे कम ऊँचाई उसके चतुर्थांश होनी चाहिये । इन दोनों मापो के मध्य के माप को आठ से भाग देने पर ऊँचाई के नौ प्रमाण प्राप्त होते है ॥५५॥
तरुण पीठ की सबसे अधिक ऊँचाई एवं विस्तार मूल अचल पीठ के बराबर होती है एवं सबसे कम माप उसका तीन चौथाई होता है । इन दोनों मापों के मध्य के अन्तर में आठ से भाग देने पर ऊँचाई एवं विस्तार के नौ माप प्राप्त होते है ॥५६॥
तरुण देवालय में प्रतिमा या लिङ्ग प्रस्तर, लोह (धातु) अथवा काष्ठनिर्मित होते है । (बाल अथवा तरुण) लिङ्ग के लिये अनुकूल वृक्ष सरल, कालज, चन्दन, साल, खदिर, मारुत, पीपल एवं तिन्दुक ॥५७॥
तरुणालय में स्थापित होने वाली लिङ्ग या प्रतिमा होनी चाहिये । जब तक प्रधान देवालय का निर्माण नही होता है एवं जब तक वाञ्छित लक्ष्य सिद्ध नही हो जाता, तब तक के लिये ही इसे करना चाहिये । प्राचीन मनीषियों के अनुसार तरुणालय को बारह वर्ष से अधिक नही करना चाहिये । यह सीमा अन्य कार्योम के लिये भी है । यदि अवधि इससे अधिक हो तो सभी प्रकार के दोष उत्पन्न होते है ॥५८॥
इस प्रकार मन्दिरों, लिङ्गो, पीठों, मूर्तियों, ग्राम आदि आवासयोग्य स्थानोंमे यदि दोष आ जायँ तो उनके अवश्य करने योग्य अनुकर्म-विधि का वर्णन किया गया । इनसे भिन्न विधि सभी प्रकार के दोषों का कारण बनती है ॥५९॥
 

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