आये इस आकुल प्रदेश में राज-कार्य का कर परित्याग
वनचर वृत्ति उपार्जनरत हो वन्य-प्रान्त में रख अनुराग,
सत्य कि, प्रतिदिन वन्य जन्तु के उत्सारण से ही मेरे
गात्र सन्धियों के बन्धन हैं पीड़ित, अतिशय कष्ट भरे,
इस कारण हो गया विवश हूँ, चाह रहा हूँ कार्य विराम
अतः प्रार्थना है मुझको भी एक दिवस का दें विश्राम’
विनय वचन सुन नृप ने सोचा ‘है अनुकूल वचन यह कि-
शकुन्तला स्मृति से मेरा मन आखेट विमुख, क्योंकि
दया, स्नेह, अपनत्व भाव में कहॉं कभी हो सका अनर्थ
प्रत्यंचा शरयुक्त धनुष से उन मृग वध में हूँ असमर्थ
जिन मृग के सह-वास मैत्री, मानों कि देकर संदेश,
किया प्रदान प्रिय शकुन्तला को मुग्ध विलोकन का उपदेश’
नृप के मुख का अवलोकन कर कहा विदूषक ने ‘प्रिय! आप
मन ही मन कुछ सोच रहे हैं, नहीं किया मैं अरण्य विलाप’
मन्द विहॅंसकर बोले अधिपति ‘मित्र! और क्या, हूँ चिन्तित
मित्र वाक्य अनुलंघनीय है इसीलिए हूँ यों स्थित’
कहा विदूषक ‘चिरंजीव हो’ फिर उठने का किया प्रयास
नृप बोले ‘हे मित्र! बैठिए, वचन शेष हैं मेरे पास
आप हमारे इस अनुनय को कहने का भी अवसर दें’
कहा विदूषक ने तब नृप से ‘मित्र! आप वह आज्ञा दें’
नृप बोले ‘विश्रान्त आप अब करें एक मेरा भी कार्य
वह बोला ‘मोदक खण्डन का?, जो यह सुन्दर क्षण है आर्य’
’तब कहता हूँ’ कहकर नृप ने किया भृत्य का सम्बोधन
आकर तत्क्षण दौवारिक ने नृप को सादर किया नमन
दौवारिक नृप से, प्रणाम कर, बोला ‘आज्ञा दें मुझको’
नृप बोले ‘रैवतक! बुलाओ यहॉं शीघ्र सेनापति को’
‘जैसी आज्ञा’ कहकर उसने सादर तत्क्षण किया गमन
सेनापति को साथ बुलाकर उससे ऐसा किया कथन
यह आज्ञा देने को तत्पर इसी ओर ही दृष्टि किए
बैठे हैं स्वामी समक्ष ही आर्य आप समीप चलिए’
नृप को देख कहा सेनापति ‘लक्षित है जिसके अवगुण
ऐसी मृगया भी स्वामी में आभाषित होती है गुण,
क्योंकि देव! शरीर आपका गिरिचर गज सा है बलवान
सतत मौर्वी घर्षण से है अग्रभाग कठोर दृष्यमान,
रवि किरणों का भी सहिष्णु है, है अव्याप्त स्वेद जलकण
होकर कृश वैसा अलक्ष्य है निज विशालता के कारण’
और निकट जाकर सेनापति बोला ‘स्वामी की जय हो,
घेरा है अरण्य जीवों को, कहें अन्य आज्ञा जो हो’
नृप बोले शिकार की निन्दा करने वाला यह माढ़व्य
निरुत्साह मुझको कर डाला, अब मृगयाच्युत है कर्तव्य’
दयासिक्त नृप के वचनों को आत्म समर्थन सा सुनकर
चुपके से सेनापति बोला उसके प्रति अभिमुख होकर
‘मित्र! रहो तुम दृढ़ ऐसे ही, करते रहो विरोध कथन,
स्वामी के ही चित्तवृत्ति का मुझको करना है पालन’
फिर नृप से बोला ‘करता है यह विधवा का पुत्र प्रलाप
निश्चय ही इस प्रकट विषय पर स्वामी उदाहरण हैं आप
श्रम करने से वसा ह्रास से हुआ कृशोदर, लघु, आरोग्य
यह शरीर इस कारण ही फिर हो जाता है उद्यम योग्य,
कृपित सभीत जन्तुओं का भी मन विकृतियुत होता लक्ष्य
है उत्कर्ष धनुर्धारी का करना गतिमय पर शर लक्ष्य,
हे स्वामी! यह व्यर्थ वचन है कि शिकार को कहें व्यसन
इसके सदृश विनोद कहॉं है? होता है उत्तम रंजन’
वाक्-निपुण माढ़व्य ने कहा ‘रे उत्साह प्रबलकर्ता!
आत्मप्रकृति को प्राप्त हुए हैं निश्चय ही मेरे भर्ता
किन्तु भ्रमणरत वन वन में तू होगा, मुझको है विश्वास,
किसी मनुष्य नासिका लोभी वृद्ध रीछ के मुख का ग्रास’
नृप बोले ‘हे भद्र अनिप! यह आश्रम थल का है विस्तार
अतः तुम्हारे इन वचनों का अभिनन्दन है अस्वीकार,
अरे आज तो आकांक्षा है कि जलाशयों को जाकर
करें स्नान सींगों से मथकर भैंसें बार बार रुचिकर,
हरिण वृन्द छाया में जाकर करें जुगाली का अभ्यास,
शूकरगण हो निडर ताल में थुथनों से खोदें जल-ग्रास,
और शिथिल बन्धन धनु मेरा ले विश्राम विलग कर शर’
यह सुनकर सेनापति बोले ‘जो स्वामी को हो रुचिकर’
निष्कर्षों के क्रियान्वयन को निश्चय कर नृप यह बोले
‘वन घेरने गये जो आगे उन लोगों को लौटा लें,
मेरे सभी सैनिकों को अब मेरी यह आज्ञा कह दें-
करे तपोवन पीड़ित जो उन कर्मों को निषेध कर दें,
देखो यह, होता है जिनका शान्ति प्रधान भाव सर्वस्व
उन तपस्वियों में होता है भस्मीकरण ब्रह्म-वर्चस्व,
स्पृश्य सूर्यकान्त मणियों सा किसी तेज से हो अभिभूत
वे तापसजन उसी तेज को करने लगते हैं उद्भूत’