शकुन्तला ने पुनः कहा यह ‘मुझको छोड़ो तो अधिपति
फिर भी जाकर सखीजनों से प्राप्त करूँगी मैं अनुमति’
नृप बोले ‘अवश्य, क्यों नहीं, तुम्हें छोड़ दूँगा मैं, तब’
किन्तु नहीं छोड़ा जब नृप ने तो शकुन्तला पूँछी ‘कब?’
नृप बोले ‘हे सुन्दरि!, ऐसा भौंरे द्वारा अपरक्षित
कुसुम समान हुए जो अतिशय कोमल एवं नव विकसित
इन तेरे अधरों को, क्योंकि मन में जागी उत्सुकता,
मेरे द्वारा धीरे धीरे जब तक पिया नहीं जाता’
ऐसा उन्नत करना चाहा शकुन्तला का मुख-मण्डल
शकुन्तला नृप के प्रयास को कुशलपूर्वक किया विफल,
इसी समय आवाज हुई यह ‘चक्रवाक वधु! सत्य सुनी,
छोड़ अभी अपने सहचर को हुई उपस्थित है रजनी’
घबराकर बोली शकुन्तला ‘हे पुरुवंशी! निश्चय ही
मेरे तन की स्थिति क्या है कुशल क्षेम जानने यही,
देवि गौतमी इसी ओर ही चली आ रही हैं तत्पर
जब तक वृक्षों की छाया में छिप जाओं कृपया जाकर’
चले गये कहकर ‘तथैव’ नृप जाकर छिपे वहीं अन्यत्र
तभी गौतमी, उभय सखी भी हुई उपस्थित लेकर पात्र
सखियॉं बोलीं ‘देवि गौतमी! उधर उपस्थित है आकर
शीघ्र गौतमी ने फिर पूँछा शकुन्तला का तन छूकर
‘पुत्री! क्या ते रे अंगों को प्राप्त हुआ कुछ भी सन्ताप?’
शकुन्तला ने कहा ‘अभी मैं कुछ अच्छी हूँ, देखें आप’
कहा गौतमी ने ‘यह मैनें लायी कुश-जल अभिमन्त्रित,
अभी शरीर तुम्हारा इससे हो जायेगा कष्ट रहित’
छिड़क दिया कुशजल को सिर पर और कहा ‘वत्से! यह दिन
है समाप्त, आ चल कुटीर में’ ऐसा कहकर किया गमन
शकुन्तला ने मन ही मन मे कहा व्यथा के कष्ट स्वरूप
‘अरे ॉदय! पहले तो तूने कनोकामना के अनुरूप
सुख के प्राप्त किए जाने पर कातरभाव नहीं त्यागा,
पश्चातापयुक्त विघटित क्यों अब सन्ताप तुझे जागा?’
कुछ पद दूर खड़ी होकर फिर धीमे स्वर में किया कथन
‘लतावलय सन्ताप निवारक! तुझे हमारा अभिनन्दन,
पुनः तुम्हारे परिसेवन को विदा मॉंगती हूँ तुमसे’
सखियों के संग शकुन्तला ने किया गमन ऐसे दुख से
पुनः पूर्व स्थल पर जाकर बोले नृप निःश्वास सत्रस्त
‘अहो! मनोरथजनित सिद्धियॉं होती है विघ्नों से ग्रस्त
क्योंकि जिनका ढ़ॅंका अधर, उन अॅंगुलियों से बारम्बार
है निषेध शब्दों के कारण विह्वल एवं प्रिय अनुहार
तथा व्यक्त मेरे प्रयास पर बॅंधी हुई लज्जा की डोर
करती हुई असहमति लक्षित मुड़े हुए कन्धों की ओर-
मेरी प्रिया सुनेत्रों वाली शकुन्तला का किसी प्रकार
आनन उठा लिया ऊपर पर किया न चुम्बन कोई बार
अब मैं जाऊॅं कहॉं?, या यहीं, प्रिया शकुन्तला के द्वारा
सेवनमुक्त लता मण्डप में कुछ क्षण रुकता हूँ हारा’
चारों ओर देखकर बोले‘ यहीं शिला पर उसी प्रिया
शकुन्तला के तन से मर्दित है यह पुष्पमयी शैय्या,
यह है नलिनी के पत्ते पर उसके नख से लिखा गया
व्यथा भाव पर मदन लेख जो पड़ा हुआ है मुरझाया,
तन संताप शान्त कर उसका शीतलता करने पोषण
यह है उसके कर से छूटे कमलनाल के आभूषण,
इस प्रकार आसक्त दृष्टि मैं और विरह से प्राप्त अनर्थ
सूने लतावलय से सहसा जाने में हूँ नहीं समर्थ’
इसी सोच में व्याकुल थे जब पड़ा सुनाई ‘हे राजन!
यज्ञ-कर्म आरम्भ समय पर सायंकाल हो रहा विघ्न,
यज्ञ भूमि से ज्वलित अग्नियुत वेदी थल के चारों प्रान्त
संध्या तोयद के सम फैले कपिशवर्ण एवं भयक्रान्त
मॉंस भोजियों की छायायें लगा रही बहुधा चक्कर’
नृप बोले ‘मैं तत्परता से चला आ रहा अभर उधर’