बज़्मे-शाहनशाह में अशआ़र का दफ़्तर खुला
रखियो या रब! यह दरे-ग़नजीना-ए-गौहर[1] खुला
शब हुई फिर अनजुमे-रख़्शन्दा[2] का मंज़र[3] खुला
इस तकल्लुफ़[4] से कि गोया[5] बुतकदे का दर खुला
गरचे हूं दीवाना, पर क्यों दोस्त का खाऊं फ़रेब
आस्तीं में दश्ना[6] पिनहां[7] हाथ में नश्तर खुला
गो[8] न समझूं उसकी बातें, गो न पाऊं उसका भेद
पर यह क्या कम है कि मुझसे वो परी-पैकर[9] खुला
है ख़याले-हुस्न[10] में हुस्ने-अ़मल[11] का सा ख़याल
ख़ुल्द[12] का इक दर है मेरी गोर[13] के अंदर खुला
मुंह न खुलने पर वो आ़लम है कि देखा ही नहीं
ज़ुल्फ़ से बढ़कर नक़ाब उस शोख़ के मुंह पर खुला
दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया
जितने अरसे[14] में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला
क्यों अंधेरी है शबे-ग़म[15]? है बलाओं[16] का नुज़ूल[17]
आज उधर ही को रहेगा दीदा-ए-अख़्तर[18] खुला
क्या रहूं ग़ुरबत[19] में ख़ुश? जब हो हवादिस[20] का यह हाल
नामा[21] लाता है वतन से नामाबर[22] अक्सर खुला
उसकी उम्मत[23] में हूं मैं, मेरे रहें क्यों काम बंद
वास्ते जिस शह[24] के ग़ालिब गुम्बदे-बे-दर[25] खुला
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